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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 404
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - मरुतः
छन्दः - ककुप्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
1
गा꣡व꣢श्चिद्घा समन्यवः सजा꣣꣬त्ये꣢꣯न म꣣रु꣢तः꣣ स꣡ब꣢न्धवः । रि꣣ह꣡ते꣢ क꣣कु꣡भो꣢ मि꣣थः꣢ ॥४०४॥
स्वर सहित पद पाठगा꣡वः꣢꣯ । चि꣣त् । घ । समन्यवः । स । मन्यवः । सजात्ये꣢꣯न । स꣣ । जात्ये꣢꣯न । म꣣रु꣡तः꣢ । स꣡ब꣢꣯न्धवः । स । ब꣣न्धवः । रिह꣡ते꣢ । क꣣कु꣡भः꣢ । मि꣣थः꣢ ॥४०४॥
स्वर रहित मन्त्र
गावश्चिद्घा समन्यवः सजात्येन मरुतः सबन्धवः । रिहते ककुभो मिथः ॥४०४॥
स्वर रहित पद पाठ
गावः । चित् । घ । समन्यवः । स । मन्यवः । सजात्येन । स । जात्येन । मरुतः । सबन्धवः । स । बन्धवः । रिहते । ककुभः । मिथः ॥४०४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 404
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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विषय - जीवनयात्रा की तीन बातें
पदार्थ -
सयनों के सम्पर्क में रहते हुए हमें प्रयत्न करना चाहिए कि (गाव:) = हमारी इन्द्रियाँ (चिद् घा) = निश्चय से (समन्यवः) = मन्युसहित हों। 'मन्यु' शब्द 'दैन्य, क्रतु व क्रोध' इन अर्थों का वाचक है। ‘क्रतु' ‘ज्ञान और कर्म' दोनों समाविष्ट हैं। 'गाव : ' शब्द इन्द्रियों का वाचक है । जब 'गौ और अश्व' दोनों शब्दों का प्रयोग होता है तो उस समय गौ का अर्थ ज्ञानेन्द्रिय है, अश्व का अर्थ कर्मेन्द्रिय है, परन्तु ये दोनों शब्द अलग-अलग भी इन्द्रियों के वाचक हैं। केवल गो शब्द ही सब इन्द्रियों को कह देता है और केवल अश्व शब्द ही सब इन्द्रियों को कहता है। ज्ञान को मुख्यता देनी हो तो 'गो', कर्म को मुख्यता देनी हो तो 'अश्व'। एवं, यहाँ कहना यह है कि हमारी इन्द्रियाँ ज्ञानपूर्वक कर्म करनेवाली हों, अतः ‘गाव:' का प्रयोग हुआ है। ये इन्द्रियाँ ज्ञान+कर्म को अपना ध्येय बनाएँ। ये इन्द्रियाँ ‘ज्ञानयज्ञ व कर्मयज्ञ' का विस्तार करनेवाली हों। इस जीवन में कर्मशून्य, थोथे ज्ञानवाला न बनूँ और ज्ञानशून्य अन्धे कर्मवाला भी न होऊँ।
मैं इस बात का अनुभव करूँ कि (सजातेन) = स = समान जाति के कारण मनुष्यत्व के नाते (मरुतः) = सब मनुष्य (सम्बन्धवः) = सामान्यरूप से मेरे बन्धु हैं। इसका [एकत्व का] अनुभव करके मैं शोक और मोह से ऊपर उठ जाऊँ, किसी से भी घृणा न करूँ। एकत्व भावना का प्रतिदिन अभ्यास करते हुए मैं अन्त में इस स्थिति में पहुँचू कि (ककुभः) = सब दिशाएँ - सब दिशाओं में रहनेवाले लोग (मिथः) = आपस में (रिहते) = प्रेम से चुम्बन लेनेवाले हों। सबमें इस प्रकार प्रेम हो जैसेकि ('वत्सं जातमिवाध्न्या') = उत्पन्न बछड़े को गौ प्रेम करती है। इस प्रेम से चुम-चाटकर वह बछड़े को पवित्र कर डालती है। इसी प्रकार हम प्रेम से एक दूसरे के जीवन को सुन्दर बनानेवाले हों ।
जिस भी मनुष्य ने इन्द्रियों में ज्ञान व कर्म का समुच्चय कर सभी के साथ बन्धुत्व को अनुभव किया और प्रेम से सभी के जीवनों को निर्बल कर दिया वह सचमुच 'सोभरि' है। उसने अपनी जीवनयात्रा का भाग उत्तमता से पूर्ण किया है।
भावार्थ -
मैं केवल ज्ञानी व केवल कर्मकाण्डी न बन जाऊँ। मैं सभी के साथ एक हो
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