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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 419
ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4
आ꣡ ते꣢ अग्न इधीमहि द्यु꣣म꣡न्तं꣢ देवा꣣ज꣡र꣢म् । यु꣢द्ध꣣ स्या꣢ ते꣣ प꣡नी꣢यसी स꣣मि꣢द्दी꣣द꣡य꣢ति꣣ द्य꣡वी꣢꣯षꣳ स्तो꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣡ भ꣢र ॥४१९॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । ते꣣ । अग्ने । इधीमहि । द्युम꣡न्त꣢म् । दे꣣व । अज꣡र꣢म् । अ । ꣣ज꣡र꣢꣯म् । यत् । ह꣣ । स्या꣢ । ते꣣ । प꣡नी꣢꣯यसी । स꣣मि꣢त् । स꣣म् । इ꣢त् । दी꣣द꣡य꣢ति । द्य꣡वि꣢꣯ । इ꣡ष꣢꣯म् । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । आ । भ꣣र ॥४१९॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ते अग्न इधीमहि द्युमन्तं देवाजरम् । युद्ध स्या ते पनीयसी समिद्दीदयति द्यवीषꣳ स्तोतृभ्य आ भर ॥४१९॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । ते । अग्ने । इधीमहि । द्युमन्तम् । देव । अजरम् । अ । जरम् । यत् । ह । स्या । ते । पनीयसी । समित् । सम् । इत् । दीदयति । द्यवि । इषम् । स्तोतृभ्यः । आ । भर ॥४१९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 419
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 8;
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विषय - एक पग और (स्तोता को भी चलने की प्रेरणा दीजिए)
पदार्थ -
हे (अग्ने) = प्रकाशमय प्रभो!-आगे-और-आगे ले चलनेवाले परमात्मन्! (ते) = तरी उस समिधा को हम (आ इधीमहि) = सर्वथा दीप्त करते हैं जोकि (द्युमन्तम्) = प्रकाशमय है और (देव) = हे ज्योतिर्मय प्रभो! (अजरम्) = न जीर्ण होनेवाली है। ब्रह्मचर्य सूक्त मे पृथिवी, अन्तरिक्ष, व द्युलोकरूप तीन समिधाओं का उल्लेख है। अध्यात्म में ये क्रमशः शरीर, मन, व मस्तिष्क हैं। गतमन्त्र में शरीर को शक्तिशाली, मन को स्तोता व प्रभुप्रवण और मस्तिष्क को 'तत्त्वद्रष्टा' बनाने का संकेत है। प्रस्तुत मन्त्र में मस्तिष्क को ज्ञानाग्नि से दीप्त करने पर बल दिया है। यह प्रकाशमय [द्युमान्] तो है ही, यह अजरम्-कभी जीर्ण न होनेवाली है - इसका क्षय नहीं होता। देने से यह बढ़ती ही जाती है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह ज्ञान हमारे साथ ही जाता है, अतः प्रभो! हम आपकी उस समिधा को दीप्त करते हैं (यत्) = जो (ह) = निश्चय से (ते) = तेरी (पनीयसी) = स्तुत्य (समित्) = समिधा है, जो (द्यवि) = मस्तिष्करूप द्युलोक में (ददीयति) = चमकती है। शरीर की पुष्टता उत्तम है, मन की प्रभुप्रवणता उत्तमतर है मस्तिष्क की ज्ञान-ज्योति है— उत्तम है, यही स्तुत्य है।
शरीर को शक्तिशाली बना कर तो बिरले ही व्यक्ति होंगे जो अपने को कृतकृत्य मान लें, परन्तु मन के अन्दर स्तुति की भावना उत्पन्न होने लगती है। अतः मन्त्र में कहते हैं कि (स्तोतृभ्यः) = इन स्तोताओं के लिए (इषम् आभर) = सर्वथा प्रेरणा को प्राप्त कराइये कि ये यहीं दूसरी सीढ़ी पर रुक न जाएँ। ये एक पग और भी आगे बढ़ाएँ, और ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करें। प्रभु यही चाहते हैं कि उनका स्तोता ज्ञान को ही अपना धन समझनेवाला ‘वसुश्रुत' [श्रुतम् एव वसु यस्य] हो। यह आत्रेय = काम, क्रोध, लोभ तीनों से ऊपर उठा हुआ हो ।
भावार्थ -
हम शरीर को शक्तिशाली बनाकर, मन को प्रभुप्रवण बनाएँ परन्तु यहाँ ही रुक न जाएँ। एक पग और आगे बढ़कर उस स्तुत्यतम ज्ञान की समिधा को उद्दीप्त करें।
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