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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 424
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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स꣢ घा꣣ तं꣡ वृष꣢꣯ण꣣ꣳ र꣢थ꣣म꣡धि꣢ तिष्ठाति गो꣣वि꣡द꣢म् । यः꣡ पात्र꣢꣯ꣳ हारियोज꣣नं꣢ पू꣣र्ण꣡मि꣢न्द्र꣣ चि꣡के꣢तति꣣ यो꣢जा꣣꣬ न्वि꣢꣯न्द्र ते꣣ ह꣡री꣢ ॥४२४॥

स्वर सहित पद पाठ

सः꣢ । घ꣣ । त꣢म् । वृ꣡ष꣢꣯णम् । र꣡थ꣢꣯म् । अ꣡धि꣢꣯ । ति꣣ष्ठाति । गोवि꣡द꣢म् । गो꣣ । वि꣡द꣢꣯म् । यः । पा꣡त्र꣢꣯म् । हा꣣रियोजन꣢म् । हा꣣रि । योजन꣢म् । पू꣣र्ण꣢म् । इ꣣न्द्र । चि꣡के꣢꣯तति । यो꣡ज꣢꣯ । नु । इ꣣न्द्र । ते । ह꣢री꣣इ꣡ति꣢ ॥४२४॥


स्वर रहित मन्त्र

स घा तं वृषणꣳ रथमधि तिष्ठाति गोविदम् । यः पात्रꣳ हारियोजनं पूर्णमिन्द्र चिकेतति योजा न्विन्द्र ते हरी ॥४२४॥


स्वर रहित पद पाठ

सः । घ । तम् । वृषणम् । रथम् । अधि । तिष्ठाति । गोविदम् । गो । विदम् । यः । पात्रम् । हारियोजनम् । हारि । योजनम् । पूर्णम् । इन्द्र । चिकेतति । योज । नु । इन्द्र । ते । हरीइति ॥४२४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 424
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 8;
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पदार्थ -

प्रभु जीव से कहते हैं कि - (सः) = वह (घा) = निश्चय से (तम्) = उस (वृषणम्) = शक्तिशाली (गोविदम्) = ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करनेवाले (रथम्) = शरीररूप रथ का (अधितिष्ठाति) = अधिष्ठाता बनता है, (यः) = जो हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठता (हारियोजनम्) = [ हरियोजनाय इदम्] परमेश्वर के सम्पर्क के लिए दिये गये इस (पात्रम्) = जीव के आधारभूत - रक्षा के योग्य शरीर को (पूर्णम्) = पूर्णतया (चिकेतति) = रोगशून्य करता है तथा (पूर्णम् चिकेतति) = इसमें पालनात्मक प्रकार से रहना जानता है [कित निवासे रोगापनयने च] इसलिए (नु) = अब (इन्द्र) = शक्तिसम्पन्न कार्यों को करनेवाले जीव तू (ते हरी) =  ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप घोड़ों को (योजा) = इस शरीररूप रथ में जोत–सदा ज्ञानप्राप्ति में लगा रह और कार्यव्याप्त हो । न मूढ़ हो, न अलस बना।

प्रस्तुत मन्त्र में शरीर को 'रथ व पात्र' शब्दों से स्मरण किया है। यह रथ तो इसलिए कि जीवन-यात्रा की पूर्ति के लिए दिया गया है, और पात्र इसलिए कि यह आत्मा का आधार है। यह रथ शक्तिशाली [वृषणम्] व ज्ञान के प्रकाशवाला [गोविदम्] होना चाहिए। हमें भी चाहिए कि हम इसमें रहना सीखें और इसे नीरोग रखें [पूर्ण चिकेतति]। कभी असमय पर न खाएँ, तमस व तामस वस्तुओं का सेवन न करें। हम इस बात को न भूल जाएँ कि यह शरीर हमें इसलिए दिया गया है कि इसके द्वारा अपनी साधना को पूर्ण करके हमें प्रभु को प्राप्त करना है। यह शरीर भोग भोगने के लिए नहीं मिला। इस का मुख्य उद्देश्य प्रभु-प्राप्ति है–‘इदं शरीरम् परमार्थसाधनम् ।' परन्तु यह तभी हो सकता है जब हम इसके अधिष्ठाता बनें रहें [अधितिष्ठाति]। यदि इस शरीररूप रथ की बागडोर हमारे हाथ में रहेगी तब तो हमारी यात्रा पूर्ण होगी, अन्यथा ये घोड़े हमें न जाने किस गर्त्त में जा गिराएँगे। प्रभु की ओर से जीव को कितना मित्रतापूर्ण निर्देश मिला है कि तू इन ज्ञानेन्द्रियरूप घोड़ों को ज्ञानप्राप्ति में और कर्मेन्द्रियों को यज्ञादि शुभ कर्मों में व्याप्त किये रह। इनको वश में करने का सर्वोत्तम साधन यही है। ऐसा करने पर तू अवश्य अपनी जीवन-यात्रा को पूर्ण करनेवाला होगा और इस प्रकार ब्रह्म को प्राप्त करानेवाला यह शरीररूप पात्र सचमुच हारियोजन बनेगा। इस चमकीले अत्यन्त सुन्दर सु - कृत शरीररूप पात्र में ही वह सत्यरूप आत्मा छिपा है। कल्पना की आँखों से इस पात्र की पाँचों तहों को अलग करके ही हम उस आत्मतत्व को देखेंगे। अन्नमयादि कोशों के उपभोगों को त्याग करनेवाले हम 'राहूगण' होंगे। और निर्मलेन्द्रिय होने से गौतम होंगे।
 

भावार्थ -

हम यह भी न भूलें कि यह शरीर प्रभु - प्राप्ति के लिए प्राप्त हुआ है।

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