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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 438
ऋषिः - त्रसदस्युः देवता - इन्द्रः छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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ए꣣ष꣢ ब्र꣣ह्मा꣢꣫ य ऋ꣣त्वि꣢य꣣ इ꣢न्द्रो꣣ ना꣡म꣢ श्रु꣣तो꣢ गृ꣣णे꣢ ॥४३८॥

स्वर सहित पद पाठ

ए꣣षः꣢ । ब्र꣣ह्मा꣢ । यः । ऋ꣣त्वि꣡यः꣢ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । ना꣡म꣢꣯ । श्रु꣣तः꣢ । गृ꣣णे꣢ ॥४३८॥


स्वर रहित मन्त्र

एष ब्रह्मा य ऋत्विय इन्द्रो नाम श्रुतो गृणे ॥४३८॥


स्वर रहित पद पाठ

एषः । ब्रह्मा । यः । ऋत्वियः । इन्द्रः । नाम । श्रुतः । गृणे ॥४३८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 438
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 10;
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पदार्थ -

(एषः) = ये विश्वतोदावन् प्रभु (ब्रह्मा) = हैं - सब तरह से बढ़े हुए हैं - प्रत्येक गुण की पराकाष्ठा हैं। अपने सखा जीव को भी सब तरह से बढ़ानेवाले हैं। ये प्रभु वे हैं (यः) = जो (ऋत्वियः) = ऋतु-ऋतु में अर्थात् सदा पुकारने के योग्य हैं। जीव को जब कभी दुःख होता है उस समय तो वह प्रभु को पुकारने योग्य हैं, जिससे हमारा मस्तिष्क स्वस्थ रहे। वे प्रभु (इन्द्र नाम श्रुतः) = इन्द्र इस नाम से प्रसिद्ध हैं ये सब असुरों के संहार करनेवाले हैं - आसुरवृत्तियों को नष्ट करनेवाले हैं। सर्व शक्तिमान् हैं, परमैश्वर्यशाली हैं।

इस ब्रह्मा, ऋत्विय व इन्द्र नाम से प्रसिद्ध प्रभु को (गृणे) = मैं स्तुत करता हूँ। प्रभु स्तवन करता हुआ मैं भी ब्रह्मा व इन्द्र बनने का प्रयत्न करता हूँ।

भावार्थ -

मैं भी वर्धमान् होऊँ। प्रभु ऋत्विय हैं- मेरी लोकहित की वृत्ति मुझे भी ऋत्विय बनाए । प्रभु इन्द्र हैं- मेरी लोकहित की वृत्ति मुझे भी ऋत्विय बनाए । प्रभु इन्द्र हैं— मैं भी आसुरवृत्तियों का संहार करनेवाला शची = शक्ति का पति बनूँ।

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