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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 442
ऋषिः - त्रसदस्युः
देवता - विश्वेदेवाः
छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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स꣢दा꣣ गा꣢वः꣣ शु꣡च꣢यो वि꣣श्व꣡धा꣢यसः꣣ स꣡दा꣢ दे꣣वा꣡ अ꣢रे꣣प꣡सः꣢ ॥४४२
स्वर सहित पद पाठस꣡दा꣢꣯ । गा꣡वः꣢꣯ । शु꣡च꣢꣯यः । वि꣣श्व꣡धा꣢यसः । वि꣣श्व꣢ । धा꣣यसः । स꣡दा꣢꣯ । दे꣣वाः꣢ । अ꣣रेप꣡सः꣢ । अ꣣ । रेप꣡सः꣢ ॥४४२॥
स्वर रहित मन्त्र
सदा गावः शुचयो विश्वधायसः सदा देवा अरेपसः ॥४४२
स्वर रहित पद पाठ
सदा । गावः । शुचयः । विश्वधायसः । विश्व । धायसः । सदा । देवाः । अरेपसः । अ । रेपसः ॥४४२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 442
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 10;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 10;
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विषय - निष्पापता
पदार्थ -
(देवा:) = देनेवाले (सदा) = हमेशा (अरपेसः) = निष्पाप होते हैं। दान-देना, दान=खण्डन, दान=शोधन। दान शब्द के उल्लिखित तीन अर्थ ही दान की निष्पापता को जन्म देनेवाली शक्ति को व्यक्त करते हैं। लोभ सब पापों का मूल है - दान उस मूल पर कुठाराघात करता हुआ पापों का उन्मूलन कर देता है। इस बात को वेद एक उदाहरण से भी इस रूप में व्यक्त करता है कि (गाव:) = गौएँ (सदा) = हमेशा (शुचयः) = पवित्र हैं। इनका मलमूत्र भी कृमिघातक होकर शोधक हो जाता है। गोमूत्र कितने ही रोगों को दूर करता है, गोमय किस प्रकार यज्ञवेदि के नैर्मल्य का कारण बनता है? गौवों की इस पवित्रता का हेतु भी वेद की दृष्टिकोण में यही है कि ये (विश्वधायसः) = सभी को दूध पिलाकर पालनेवाली हैं। गौवें जीवन देती हैं, देने से ही पवित्र हैं। मनुष्य भी देता है, तो दान से देव बन जाता है और निष्पापता का लाभ करता है। यह निष्पापता ही तो उसके ब्राह्मीभाव का कारण बनेगी।
भावार्थ -
दानी निष्पाप होता है, देव बनता है और महादेव को प्राप्त करता है।
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