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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 444
ऋषिः - त्रसदस्युः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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उ꣡प꣢ प्र꣣क्षे꣡ मधु꣢꣯मति क्षि꣣य꣢न्तः꣣ पु꣡ष्ये꣢म र꣣यिं꣢ धी꣣म꣡हे꣢ त इन्द्र ॥४४४॥
स्वर सहित पद पाठउ꣡प꣢꣯ । प्र꣣क्षे꣢ । प्र꣣ । क्षे꣢ । म꣡धु꣢꣯मति । क्षि꣣य꣡न्तः꣢ । पु꣡ष्ये꣢꣯म । र꣣यि꣢म् । धी꣣म꣡हे꣢ । ते꣣ । इन्द्र ॥४४४॥
स्वर रहित मन्त्र
उप प्रक्षे मधुमति क्षियन्तः पुष्येम रयिं धीमहे त इन्द्र ॥४४४॥
स्वर रहित पद पाठ
उप । प्रक्षे । प्र । क्षे । मधुमति । क्षियन्तः । पुष्येम । रयिम् । धीमहे । ते । इन्द्र ॥४४४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 444
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 10;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 10;
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विषय - मधुमान् प्रक्ष में निवास
पदार्थ -
‘प्रक्ष’ शब्द का अर्थ है- निवास का प्रकृष्ट स्थान । केवल निवास ही नहीं, ‘क्षि= निवासगत्योः' धातु से बना यह शब्द यह निर्देश कर रहा है कि इस शरीर में हमारा उत्तम निवास हो और हम सदा गतिशील हों। इस प्रक्ष को हम 'मधुमति' = मधुमान बनाएँ, हमारा सारा व्यवहार माधुर्य को लिए हुए हो । ('मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परयणम्') = मेरा आना-जाना भी माधुर्य को लिये हुए हो। इस (मधुमति प्रक्षे) = माधुर्यमय शरीर में (उपक्षियन्तः) = निवास करते हुए और गतिशील रहते हुए हम (रयिं पुष्येम) = धनों का पोषण करें और (इन्द्र) = हे प्रभो! (ते धीमहे) = आपका ध्यान करें और आपको धारण करें।
'हम गतिशील रहते हुए धन कमाएँ' इस वाक्य का अभिप्रय स्पष्ट है कि हम पुरुषार्थ-प्राप्य धन को ही उपादेय मानें। 'और यह धन हमारे जीवनों में किसी प्रकार के धब्बों को लगानेवाला न हो जाए' इसलिए हम प्रभु का ध्यान व उसे धारण करें। 'धनसम्पन्न - प्रभुभक्त' गृहस्थ कितना सौभाग्यशाली है? धन से उसके सब कार्य चलते हैं और प्रभु-भक्ति उसकी हानि नहीं होने देती। प्रभुभक्ति धन की हानियों का प्रतिकार है। एवं, उल्लिखित दो मन्त्रों में उपासना के निम्न लाभ परिगणित हुए हैं१. प्रभु - प्राप्ति [आयाहि ], २. इन्द्रियों का मार्ग से विचलित न होना, ३. शरीर में उत्तम निवास व गतिशीलता [प्रक्षे], ४. माधुर्य [मधुमति] ५. ऐश्वर्यलाभ [रयिं पुष्येम], ६. दिव्यता का धारण [ते धीमहि ] ।
भावार्थ -
प्रभुकृपा से मेरा मन अवश्य उपासना-प्रवण हो।
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