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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 448
ऋषिः - बन्धुः सुबन्धुः श्रुतबन्धुर्विप्रबन्धुश्च क्रमेण गोपायना लौपायना वा देवता - अग्निः छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣢ग्ने꣣ त्वं꣢ नो꣣ अ꣡न्त꣢म उ꣣त꣢ त्रा꣣ता꣢ शि꣣वो꣡ भु꣢वो वरू꣣꣬थ्यः꣢꣯ ॥४४८॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡ग्ने꣢꣯ । त्वम् । नः꣣ । अ꣡न्त꣢꣯मः । उ꣣त꣢ । त्रा꣣ता꣢ । शि꣣वः꣢ । भु꣣वः । वरूथ्यः꣢꣯ ॥४४८॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्ने त्वं नो अन्तम उत त्राता शिवो भुवो वरूथ्यः ॥४४८॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्ने । त्वम् । नः । अन्तमः । उत । त्राता । शिवः । भुवः । वरूथ्यः ॥४४८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 448
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 11;
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पदार्थ -

‘पृषध्र' सबपर प्रसाद बखेरता हुआ और उसके द्वारा सभी का धारण करता हुआ सबका 'बन्धु' बनता है। यह केवल अपना कल्याण नहीं चाहता अपितु सबके कल्याण के लिए सदा प्रवृत्त रहता है, परन्तु उस सेवा के कार्य में भी अभिमान के अंश को न उत्पन्न होने देने के लिए प्रभु का स्मरण इन शब्दों में करता है हे (अग्ने) = आगे ले-चलनेवाले प्रभो! (त्वं नः अन्तमः) = आप ही हमारे अन्तिकम [Intimate] मित्र हो । संसार में जब सभी साथ छोड़ जाते हैं उस समय आप की मित्रता ही हमारा अवलम्बन होती हैं (उत्) = और (त्राता) = आप ही हमारे रक्षक हैं। रक्षक ही नहीं (शिवः) = कल्याण करनेवाले हैं। (वरूथ्य:) = आप हमारे उत्तम आवरण [Cover, Shelter] (भुव:) = हैं। आप ही हमारे उत्तम धन [Wealth] हैं। प्रभुरूप धन की तुलना में अन्य सब धन तुच्छ हैं ही। 

भावार्थ -

मैं प्रभु को अपनी सम्पत्ति समझूँ ।

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