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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 464
ऋषिः - नकुलः देवता - सविता छन्दः - अत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣भि꣢꣫ त्यं दे꣣व꣡ꣳ स꣢वि꣣ता꣡र꣢मो꣣꣬ण्योः꣢꣯ क꣣वि꣡क्र꣢तु꣣मर्चा꣡मि꣢ स꣣त्य꣡स꣢वꣳ रत्न꣣धा꣢म꣣भि꣢ प्रि꣣यं꣢ म꣣ति꣢म् ऊ꣣र्ध्वा꣢꣫ यस्या꣣म꣢ति꣣र्भा꣡ अदि꣢꣯द्युत꣣त्स꣡वी꣢मनि꣣ हि꣡र꣢ण्यपाणिरमिमीत सु꣣क्र꣡तुः꣢ कृ꣣पा꣡ स्वः꣢ ॥४६४॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣भि꣢ । त्यम् । दे꣣व꣢म् । स꣣विता꣡र꣢म् । ओ꣣ण्योः꣢꣯ । क꣣वि꣡क्र꣢तुम् । क꣣वि꣢ । क्र꣣तुम् । अ꣡र्चा꣢꣯मि । स꣣त्य꣡स꣢वम् । स꣣त्य꣢ । स꣣वम् । रत्नधा꣢म् । र꣣त्न । धा꣢म् । अ꣣भि꣢ । प्रि꣣य꣢म् । म꣣ति꣢म् । ऊ꣣र्ध्वा꣢ । य꣡स्य꣢꣯ । अ꣣म꣡तिः꣢ । भाः । अ꣡दि꣢꣯द्युतत् । स꣡वी꣢꣯मनि । हि꣡र꣢꣯ण्यपाणिः । हि꣡र꣢꣯ण्य । पा꣣णिः । अमिमीत । सुक्र꣡तुः꣢ । सु꣣ । क्र꣡तुः꣢꣯ । कृ꣣पा꣢ । स्वा३रि꣡ति꣢ ॥४६४॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि त्यं देवꣳ सवितारमोण्योः कविक्रतुमर्चामि सत्यसवꣳ रत्नधामभि प्रियं मतिम् ऊर्ध्वा यस्यामतिर्भा अदिद्युतत्सवीमनि हिरण्यपाणिरमिमीत सुक्रतुः कृपा स्वः ॥४६४॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । त्यम् । देवम् । सवितारम् । ओण्योः । कविक्रतुम् । कवि । क्रतुम् । अर्चामि । सत्यसवम् । सत्य । सवम् । रत्नधाम् । रत्न । धाम् । अभि । प्रियम् । मतिम् । ऊर्ध्वा । यस्य । अमतिः । भाः । अदिद्युतत् । सवीमनि । हिरण्यपाणिः । हिरण्य । पाणिः । अमिमीत । सुक्रतुः । सु । क्रतुः । कृपा । स्वा३रिति ॥४६४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 464
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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पदार्थ -

मैं (त्यं देवं अभि) = उस देव को लक्ष्य बनाकर चलता हूँ जोकि वस्तुतः (देवम्) = इस संसाररूप क्रीड़ा का करनेवाला है [दीव्यति- क्रीडति] । संसार उस प्रभु का खेल है-इसे खेल समझने के विपरीत यह आनन्दप्रद बना रहता है। उस प्रभु की ओर जोकि (आण्योः) = द्युलोक व पृथिवीलोक के (सवितारम्) = उत्पन्न करनेवाले हैं, (कविक्रतुम्) = जिनके एक-एक कर्म में कविता निहित है–प्रत्येक कर्म बुद्धिमत्तापूर्ण है। प्रभु की कौन सी कृति है जोकि काव्यमय नहीं है?

मैं उस प्रभु की (अर्चामि) = अर्चना करता हूँ जो (सत्यसवम्) = [ हृदयस्थ होकर सदा ] सत्य की प्रेरणा देनेवाले हैं। (रत्नधाम्) = हमारे शरीरों में रमणीय रत्नों के धारण करनेवाले हैं। (अभि) = मैं उस प्रभु की ओर चलता हूँ जोकि (प्रियम्) = तृप्ति देनेवाले हैं जिनको पाकर जीव सन्तोष का अनुभव करता हैं। (मतिम्) = वे प्रभु ज्ञान के पुञ्ज हैं, (यस्य) = जिन प्रभु की (भाः) = दीप्ति (ऊर्ध्वा) = सर्वोच्च है और (अमतिः) = अ-मित है— Immeasurable अपरिमेय है। हजारों सूर्यों की दीप्तियाँ भी उसकी दीप्ति की तुलना नहीं कर सकती। उस प्रभु की ये दीप्तियाँ - विभूतियाँ (सवीमनि) = उत्पन्न जगत् में (अदिद्युतत्) = चमक रहीं हैं। क्या हिमाच्छादित पर्वतों में, क्या समुद्र में, क्या पृथिवी पर और क्या आकाश को आच्छादित करनेवाले तारों में उसकी महिमा दृष्टिगोचर हो रही है। कण-कण उसकी महिमा का गायन कर रहा है।

वह प्रभु (‘हिरण्यपाणि') = है, हितरमणीय हाथोंवाले हैं। उनका वरदहस्त हम सबके सिर है। । (सुक्रतुः) = वे प्रभु सदा उत्तम कर्मों को करनेवाले हैं। वे (कृपा) = करुणा से (स्वः) = स्वर्गलोक को (अमिमीत) = बनाते हैं। इस स्वर्गलोक को पाता वही है जोकि अपने सारे घराने में सबसे आगे बढ़ जाता है। 'न–कुल' का अर्थ है- 'जिसके समान कुल में कोई नहीं है। इस प्रकार उत्कर्ष का साधनेवाला ही स्वर्गलोक को प्राप्त करता है।

भावार्थ -

उस प्रभु का प्रकाश अ-मित है - मेरा भी प्रकाश अमित नहीं तो परिमित तो अवश्य ही हो।

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