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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 465
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - अग्निः
छन्दः - अत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣ग्नि꣡ꣳ होता꣢꣯रं मन्ये꣣ दा꣡स्व꣢न्तं꣣ व꣡सोः꣢ सू꣣नु꣡ꣳ सह꣢꣯सो जा꣣त꣡वे꣢दसं꣣ वि꣢प्रं꣣ न꣢ जा꣣त꣡वे꣢दसम् । य꣢ ऊ꣣र्ध्व꣡या꣢ स्वध्व꣣रो꣢ दे꣣वो꣢ दे꣣वा꣡च्या꣢ कृ꣣पा꣢ । घृ꣣त꣢स्य꣣ वि꣡भ्रा꣢ष्टि꣣म꣡नु꣢ शु꣣क्र꣡शो꣢चिष आ꣣जु꣡ह्वा꣢नस्य स꣣र्पि꣡षः꣢ ॥४६५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣ग्नि꣢म् । हो꣡ता꣢꣯रम् । म꣣न्ये । दा꣡स्व꣢꣯न्तम् । व꣡सोः꣢꣯ । सू꣣नु꣢म् । स꣡ह꣢꣯सः । जा꣣त꣡वे꣢दसम् । जा꣣त꣢ । वे꣣दसम् । वि꣡प्रम् । वि । प्र꣣म् । न꣢ । जा꣣त꣡वे꣢दसम् । जा꣣त꣢ । वे꣣दसम् । यः꣢ । ऊ꣣र्ध्व꣡या꣢ । स्व꣣ध्वरः꣢ । सु꣣ । अध्वरः꣢ । दे꣣वः꣢ । दे꣣वा꣡च्या꣢ । कृ꣣पा꣢ । घृ꣣त꣡स्य꣢ । वि꣡भ्रा꣢꣯ष्टिम् । वि । भ्रा꣣ष्टिम् । अ꣡नु꣢꣯ । शु꣣क्र꣡शो꣢चिषः । शु꣣क्र꣢ । शो꣣चिषः । आजु꣡ह्वा꣢नस्य । आ꣣ । जु꣡ह्वा꣢꣯नस्य । स꣣र्पि꣡षः꣢ ॥४६५॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निꣳ होतारं मन्ये दास्वन्तं वसोः सूनुꣳ सहसो जातवेदसं विप्रं न जातवेदसम् । य ऊर्ध्वया स्वध्वरो देवो देवाच्या कृपा । घृतस्य विभ्राष्टिमनु शुक्रशोचिष आजुह्वानस्य सर्पिषः ॥४६५॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निम् । होतारम् । मन्ये । दास्वन्तम् । वसोः । सूनुम् । सहसः । जातवेदसम् । जात । वेदसम् । विप्रम् । वि । प्रम् । न । जातवेदसम् । जात । वेदसम् । यः । ऊर्ध्वया । स्वध्वरः । सु । अध्वरः । देवः । देवाच्या । कृपा । घृतस्य । विभ्राष्टिम् । वि । भ्राष्टिम् । अनु । शुक्रशोचिषः । शुक्र । शोचिषः । आजुह्वानस्य । आ । जुह्वानस्य । सर्पिषः ॥४६५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 465
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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विषय - प्रभु का कृपापात्र
पदार्थ -
मै (अग्निम्) = प्रकाशमय- हमें आगे ले-चलनेवाले (होतारम्) = सब कुछ देनेवाले प्रभु का (मन्ये) = मनन और चिन्तन करता हूँ। वे प्रभु (वसोः दास्वन्तम्) = निवास के लिए आवश्यक धन देनेवाले हैं–उत्कृष्ट सम्पत्ति प्राप्त करानेवाले हैं। (सहसः सूनुम्) = बल उत्पन्न करनेवाले हैं-मैं प्रभु के सम्पर्क में आता हूँ तो मुझमें बल का संचार होता है । (जातवेदसम्) = मुझ में ज्ञान की वृद्धि होती है उसी प्रकार प्रभुसम्पर्क मेरे जीवन को ज्योतिर्मय कर देगा।
एवं, प्रभु सम्पर्क से मुझे उत्तम धन, शक्ति व ज्ञान मिलेगा। उस प्रभु के सम्पर्क से (यः) = जो (ऊर्ध्वया) = सर्वोत्कृष्ट और सब सहारों के असफल सिद्ध होने के बाद (देवाच्या) = देवों को प्राप्त होनेवाली (कृपा) = कृपा से (देवः) = [दानात्] हमें सब उत्तमोत्तम पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं और (स्वध्वरः) = अत्युत्तम प्रकार से हमें हिंसा से बचानेवाले हैं।
जब संसार के सभी आश्रय निरर्थक सिद्ध होते हैं उस समय हमें उस प्रभु की कृपा प्राप्त होती है। सब रोगों का अन्तिम औषध प्रभु-कृपा ही है। यह कृपा हमें तब प्राप्त होती है जबकि हमारी वृत्ति दैवी बनती है। देव की कृपा का अधिकारी देव ही बन पाता है। यह कृपा हमें सब इष्ट पदार्थ प्राप्त कराती है और हमें सब प्रकार की हिंसाओं व अकल्याणों से बचाती है।
इस प्रभु का दर्शन हमें (घृतस्य) = मलों को दूर करनेवाली ज्ञानदीप्ति [घृ क्षरण व दीप्ति] के (विभ्राष्टिम् अनु) = प्रकाश के होने पर ही हो पाएगा, जो ज्ञानदीप्ति (शुक्रशोचिषः) = चमकते हुए प्रकाशवाली है ('आजुह् वानस्य) = आहुति देनेवाली अर्थात् त्याग की भावनावाली है तथा (सर्पिष:) = [सृप् गतौ] बड़ी क्रियाशील है। वास्तविक ज्ञान होने पर मनुष्य में त्याग व क्रिया की भावना तो उत्पन्न होती ही है। यह प्रभुदर्शन करनेवाला प्रभु का ज्ञानी भक्त प्रभु को आत्मतुल्य प्रिय होता है उसके सम्पर्क में यह अङ्ग-प्रत्यङ्ग में शक्ति का अनुभव करता हुआ ‘परुच्छेप' होता है। और यह तब तक 'परुच्छेप' बना रहता है जब तक कि दैवोदासि-प्रभु के प्रति अपने को दे डालनेवाला बना रहता है।
भावार्थ -
मैं देव बनूँ जिससेकि मुझे प्रभु की कृपा प्राप्त हो।
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