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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 484
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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प꣡व꣢मानो अजीजनद्दि꣣व꣢श्चि꣣त्रं꣡ न त꣢꣯न्य꣣तु꣢म् । ज्यो꣡ति꣢र्वैश्वान꣣रं꣢ बृ꣣ह꣢त् ॥४८४॥
स्वर सहित पद पाठप꣡व꣢꣯मानः । अ꣣जीजनत् । दिवः꣢ । चि꣣त्र꣢म् । न । त꣣न्यतु꣢म् । ज्यो꣡तिः꣢ । वै꣣श्वानर꣢म् । वै꣣श्व । नर꣢म् । बृ꣣ह꣢त् ॥४८४॥
स्वर रहित मन्त्र
पवमानो अजीजनद्दिवश्चित्रं न तन्यतुम् । ज्योतिर्वैश्वानरं बृहत् ॥४८४॥
स्वर रहित पद पाठ
पवमानः । अजीजनत् । दिवः । चित्रम् । न । तन्यतुम् । ज्योतिः । वैश्वानरम् । वैश्व । नरम् । बृहत् ॥४८४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 484
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2;
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विषय - लोकहितकारी ज्ञान
पदार्थ -
(पवमानः) = हमारे जीवन को पवित्र करनेवाला यह सोम (दिवः) = धुलोक के चित्रम्-अद्भुत (तन्यर्तुंन) = विद्युत-प्रकाश के समान (ज्योतिः) = ज्ञान के प्रकाश को (अजीजनत्) = उत्पन्न करता है। कौन से ज्ञान के प्रकाश को? जो (वैश्वानरम्) = [विश्वनरहितम्] सब लोकों का कल्याण करनेवाला है तथा (बृहत्) = [बृहि वृद्धौ] लोकवृद्धि का कारण है।
आधुनिक युग में ज्ञान की वृद्धि हो रही है । पर यह ज्ञान - वृद्धि अणु-बम्बों आदि का निर्माण करके लोकहित के लिए कल्याणकारी प्रमाणित नहीं हो रही । ज्ञान बढ़ा है परन्तु यह लोकवृद्धि का कारण न बनकर लोक संक्षय का कारण हो गया है। संयमी पुरुषों का ज्ञान हितकर व वृद्धिकर होता है। जैसे आकाश में बिजली चमकी और सूचिभेद्य तम में भी मार्ग दिख गया, इसी प्रकार संयमी के मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञान विद्युत् का प्रकाश होता है और उसे गूढ़ - से - गूढ़ विषय भी स्पष्ट हो जाते हैं। यह अज्ञान ग्रन्थियों को सुलझाता हुआ उस ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करता है जो सभी का हितकर व वृद्धिकर होता है। संयमी होने से यह उस ज्ञान का दुरोपयोग नहीं करता, उसे अपने भोगों की वृद्धि का साधन नहीं बनाता। यह तो है ही 'अमहीयु' = पार्थिव भोगों को न चाहनेवाला । इसी से यह ‘आङ्गिरस' है। और इसी से यह अपने ज्ञान को 'वैश्वानर, बृहत्' बना पाया है।
भावार्थ -
सोम से मुझे वह ज्योति प्राप्त हो जो सभी की अभिवृद्धि का हेतु बने।
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