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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 489
ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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आ꣣विश꣢न्क꣣ल꣡श꣢ꣳ सु꣣तो꣢꣫ विश्वा꣣ अ꣡र्ष꣢न्न꣣भि꣡ श्रियः꣢꣯ । इ꣢न्दु꣣रि꣡न्द्रा꣢य धीयते ॥४८९॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣣विश꣢न् । आ꣣ । विश꣢न् । क꣣ल꣡श꣢म् । सु꣣तः꣢ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣡र्ष꣢꣯न् । अ꣣भि । श्रि꣡यः꣢꣯ । इ꣡न्दुः꣢꣯ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । धी꣣यते ॥४८९॥


स्वर रहित मन्त्र

आविशन्कलशꣳ सुतो विश्वा अर्षन्नभि श्रियः । इन्दुरिन्द्राय धीयते ॥४८९॥


स्वर रहित पद पाठ

आविशन् । आ । विशन् । कलशम् । सुतः । विश्वाः । अर्षन् । अभि । श्रियः । इन्दुः । इन्द्राय । धीयते ॥४८९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 489
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3;
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पदार्थ -

इस मानव शरीर में सोलह कलाओं का निवास है, अतएव पुरुष को 'षोडशी' कहा जाता है। ‘कलाः शेरते अस्मिन्' इस व्युत्पति से शरीर 'कलश' है । (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ यह सोम (कलशम्) = इस शरीर में (आविशन्) = समन्तात् प्रवेश करता हुआ या व्याप्त होता हुआ (विश्वाः) = सम्पूर्ण (श्रियः) = श्रियों- उत्तमताओं- शोभाओं को (अभि अर्षन्) = प्राप्त कराता है। सोम स्वयं सोलह कलाओं में केन्द्रीभूत एक महत्त्वपूर्ण कला है। इसके ठीक होने पर अन्य सब कलाएँ ठीक होती हैं- शरीर का अङ्ग-प्रत्यङ्ग शोभामय होता है।

(इन्दुः) = यह अङ्ग-प्रत्यङ्ग को शक्तिशाली बनानेवाला सोम (इन्द्राय) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता के लिए (धीयते) = धारण किया जाता है, अर्थात् इस सोम का धारण इन्द्र ही करता है वही व्यक्ति जो कि इन्द्रियों का दास नही बन जाता। 'जीभ ने चाहा और हमने खाया' ये वृत्ति हमें सोम धारण के योग्य नहीं बनाती, मैं इन्द्र बनात हूँ - सोम धारण करता हूँ और परिणामतः ‘जमदग्निः'=ठीक पाचन शक्तिवाला बना रहता हूँ और मेरी सब शक्तियों का ठीक परिपाक भी होता है सो ‘भार्गव' होता हूँ।

भावार्थ -

मैं इन्द्र = जितेन्द्रिय बनकर सोम का धारण करूँ।
 

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