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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 499
ऋषिः - उचथ्य आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
6
अ꣡ध्व꣢र्यो꣣ अ꣡द्रि꣢भिः सु꣣त꣡ꣳ सोमं꣢꣯ प꣣वि꣢त्र꣣ आ꣡ न꣢य । पु꣣नाही꣡न्द्रा꣢य꣣ पा꣡त꣢वे ॥४९९॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ध्व꣢꣯र्यो । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । सुत꣢म् । सो꣡म꣢꣯म् । प꣣वि꣡त्रे꣢ । आ । न꣣य । पुनाहि꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । पा꣡त꣢꣯वे ॥४९९॥
स्वर रहित मन्त्र
अध्वर्यो अद्रिभिः सुतꣳ सोमं पवित्र आ नय । पुनाहीन्द्राय पातवे ॥४९९॥
स्वर रहित पद पाठ
अध्वर्यो । अद्रिभिः । अ । द्रिभिः । सुतम् । सोमम् । पवित्रे । आ । नय । पुनाहि । इन्द्राय । पातवे ॥४९९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 499
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
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विषय - उत्तेजना से दूर
पदार्थ -
हे (अध्वर्यो) = हिंसा की भावना से दूर रहनेवाले स्तोत: ! (सोमम्) = तू सोम को (आनय) = समन्तात् अपने शरीर में प्राप्त करा । वस्तुतः सोम को शरीर में सुरक्षित रखने के लिए अध्वर्यु - हिंसादि की भावनाओं से ऊपर उठना आवश्यक है। किसी भी प्रकार की उत्तेजना ‘सोम-रक्षा' के लिए विघातक है। इसी से ब्रह्मचारी के लिए 'शोक-मोह-क्रोध' सभी वर्जित हैं। यह सोम (अद्रिभि:) = पाषाणों के हेतु से (सुतम्) = उत्पन्न किया गया है। ‘अश्मा भवतु नस्तनूः' इस अथर्ववाक्य के अनुसार पाषाण - तुल्य दृढ़ शरीर का ही यहाँ ‘अद्रि' शब्द से संकेत है। सोम की रक्षा से शरीर वज्रतुल्य बनता ही है। इस सोम को (पवित्रे) = पवित्रता के निमित्त हमें शरीर में से रोगरूप मलों को दूर करता है - मन के द्वेषादि मलों को हरता है तथा बुद्धि की कुण्ठता को भगाता है।
, हे सोम! तू (पुनाहि) = पवित्र कर और (इन्द्राय) = इस जीवात्मा के (पातवे) = रक्षा के लिए हो । सोम के संयम से अपने को पवित्र बनाकर - प्रलोभनों से अपने को सुरक्षित करके यह सचमुच प्रभु का उत्तम स्तोता 'उचथ्य' बनता है। भोगासक्ति के अभाव में यह 'आङ्गिरस होता है। वस्तुतः आङ्गिरस = शक्तिशाली पुरुष ही उत्तेजना से दूर व 'अध्वर्यु' बनता है और सोम की और अधिक रक्षा कर पाता है।
भावार्थ -
मैं सब प्रकार से उत्तेजनाओं से दूर रहकर सोमपान करनेवाला बनूँ।
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