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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 501
ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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आ꣡ प꣢वस्व सह꣣स्रि꣡ण꣢ꣳ र꣣यि꣡ꣳ सो꣢म सु꣣वी꣡र्य꣢म् । अ꣣स्मे꣡ श्रवा꣢꣯ꣳसि धारय ॥५०१

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । प꣣वस्व । सहस्रि꣡ण꣢म् । र꣣यि꣢म् । सो꣣म । सुवी꣡र्य꣢म् । सु꣣ । वी꣡र्य꣢꣯म् । अ꣣स्मे꣡इति꣢ । श्र꣡वाँ꣢꣯सि । धा꣣रय ॥५०१॥


स्वर रहित मन्त्र

आ पवस्व सहस्रिणꣳ रयिꣳ सोम सुवीर्यम् । अस्मे श्रवाꣳसि धारय ॥५०१


स्वर रहित पद पाठ

आ । पवस्व । सहस्रिणम् । रयिम् । सोम । सुवीर्यम् । सु । वीर्यम् । अस्मेइति । श्रवाँसि । धारय ॥५०१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 501
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
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पदार्थ -

हे (सोम) = सोम! (रयिं आपवस्व) = मुझे उस सम्पत्ति को सवथा प्राप्त करा जोकि (सहस्त्रिणम्) = मेरे जीवन को सदा उल्लासवाला और (सुवीर्यम्) = मुझे उत्तम शक्तिवाला बनाती है। सम्पत्ति और समृद्धि शब्दों में यह अन्तर है कि समृद्धि जहाँ बाह्य वस्तु है वहाँ सम्पत्ति आन्तर वस्तु है । यह सम्पत्ति ‘तेज-वीर्य - बल - ओज - मन्यु - सहस्' आदि शब्दों से सुचित होती है और क्रमशः अन्नमयादि कोशों को अलंकृत करती है। सोम वस्तुतः इस सम्पूर्ण सम्पत्ति का मूल है। यहाँ वीर्य व सहस् दो का ही संकेत प्रतीक रूप में है। वस्तुतः सोम से तो सारी सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं।

शक्ति और सतत प्रसाद को प्राप्त कराके हे सोम! तू (अस्मे) = हममें (श्रवांसि धारय) = ज्ञान व यशों को धारण कर। मेरे जीवन से ऐसे ही कार्य हों जोकि कीर्तिकर हों। वस्तुतः संयमी पुरुष का जीवनक्रम इस प्रकार सुन्दरता से चलता है कि शत्रु भी उसका यशोगान करते हैं। इसके जीवन में एक ऐसी स्थिरता होती है कि सभी उससे प्रभावित होते हैं। यह 'नि-ध्रुवि'-ध्रुव बुद्धिवाला–स्थितप्रज्ञ होता है। सदा ज्ञानमार्ग से विचरण करनेवाला 'काश्यप' होता है। 

भावार्थ -

सोम हमें सदा उल्लासमय, शक्तिशाली, ज्ञानी व उत्तम कीर्तिवाला बनाता है।

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