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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 508
ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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अ꣣यं꣡ विच꣢꣯र्षणिर्हि꣣तः꣡ पव꣢꣯मानः꣣ स꣡ चे꣢तति । हि꣣न्वान꣡ आप्यं꣢꣯ बृ꣣ह꣢त् ॥५०८॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣य꣢म् । वि꣡च꣢꣯र्षणिः । वि । च꣣र्षणिः । हितः꣢ । प꣡व꣢꣯मानः । सः । चे꣣तति । हिन्वानः꣢ । आ꣡प्य꣢꣯म् । बृ꣣ह꣢त् ॥५०८॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं विचर्षणिर्हितः पवमानः स चेतति । हिन्वान आप्यं बृहत् ॥५०८॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम् । विचर्षणिः । वि । चर्षणिः । हितः । पवमानः । सः । चेतति । हिन्वानः । आप्यम् । बृहत् ॥५०८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 508
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 12
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 12
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
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विषय - सदा - चेतन
पदार्थ -
(अयम्) = यह सोम (विचर्षणिः) = मुझे विशेषरूप से द्रष्टा बनाता है। मैं क्रान्तदर्शी बनकर प्रत्येक वस्तु को उसके वास्तविक रूप में देखता हूँ। इसी का परिणाम है कि उस-उस वस्तु की आपत-रमणीयता मुझे उलझा नहीं पाती। इस प्रकार यह सोम (हितः) = मेरे लिए हितकर होता है। (पवमानः) = यह मुझे पवित्र करनेवाला है और (सः) = वह (चेतति) = चेतनामय है। इस सोम के संयम से मैं मोहमयी प्रमाद - मदिरा पीकर बेसुध नहीं हो जाता, अपितु मेरी चेतना स्थिर रहती है।
इस प्रकार यह सोम मुझे सदा (बृहत आप्यम्) = सर्वमहान्, प्राप्त करने योग्य प्रभु की ओर (हिन्वान:) = प्रेरित करता है। प्राप्त करने योग्य वस्तु 'आप्यम्' है, सर्वोत्तम आप्य प्रभु हैं। उस सर्वोत्तम ‘आप्य' की प्राप्ति के लिए मुझे यह स्मृति सदा बनी ही रहनी चाहिए कि कोऽहं, (किमिहागत:) = मैं कौन हूँ, यहाँ क्यों आया हूँ! सोम इस चेतना को स्थायी रखता है और मुझे प्रभु-दर्शन कराता है। प्रभु - दर्शन के लिए दो बातें आवश्यक हैं- १. शक्ति २. चेतना। गत मन्त्र में सोम के लिए कहा था कि (वृषायसे) = यह मुझे शक्तिशाली बनाता है और प्रस्तुत मन्त्र में कहा है कि स (चेतति) = यह मेरी चेतना को स्थिर रखता है। शक्ति का तत्त्व 'जमदग्नि' बनने में है, मरी जाठराग्नि सदा तीव्र बनी रहे- 'जमत् + अग्नि' बना रहूँ। जाठराग्नि ठीक रहने से ही सब धातुओं का ठीक उत्पादन होकर मेरी शक्ति स्थिर रहती है। चेतना के लिए भार्गव'–तपस्वी बनना आवश्यक है।
भावार्थ -
‘जमदग्नि भार्गव' बनकर तथा 'शक्ति व चेतना' का सम्पादन करके मैं प्रभु-प्राप्ति का अधिकारी बनूँ।