Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 52
ऋषिः - मेधातिथि0मेध्यातिथी काण्वौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
4
अ꣢ध꣣ ज्मो꣡ अध꣢꣯ वा दि꣣वो꣡ बृ꣢ह꣣तो꣡ रो꣢च꣣ना꣡दधि꣢꣯ । अ꣣या꣡ व꣢र्धस्व त꣣꣬न्वा꣢꣯ गि꣣रा꣢꣫ ममा जा꣣ता꣡ सु꣢क्रतो पृण ॥५२॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ध꣢꣯ । ज्मः । अ꣡ध꣢꣯ । वा꣣ । दिवः꣢ । बृ꣣हतः꣢ । रो꣣चना꣢त् । अधि꣢꣯ । अ꣣या꣢ । व꣣र्धस्व । त꣡न्वा꣢꣯ । गि꣣रा꣢ । म꣡म꣢꣯ । आ । जा꣣ता꣢ । सु꣢क्रतो । सु । क्रतो पृण ॥५२॥
स्वर रहित मन्त्र
अध ज्मो अध वा दिवो बृहतो रोचनादधि । अया वर्धस्व तन्वा गिरा ममा जाता सुक्रतो पृण ॥५२॥
स्वर रहित पद पाठ
अध । ज्मः । अध । वा । दिवः । बृहतः । रोचनात् । अधि । अया । वर्धस्व । तन्वा । गिरा । मम । आ । जाता । सुक्रतो । सु । क्रतो पृण ॥५२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 52
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
Acknowledgment
विषय - इसी मानव देह से
पदार्थ -
प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (जात) = उच्च योनि में उत्पन्न आत्मन्! तुझे मैंने सर्वोच्च योनि में जन्म दिया है, अतः (सुक्रतो)=उत्तम प्रज्ञा, उत्तम कर्मों तथा उत्तम संकल्पोंवाला होकर (पृण)= सुखी हो। मनुष्य को चाहिए कि मानवदेह को प्राप्त करके अपनी प्रज्ञा, कर्मों व संकल्पों को उत्तम बनाकर मस्तिष्क, भुजाओं व हृदय सभी का ठीक विकास करे। यह शरीर इसीलिए मिला है।
ये सब बातें होंगी कैसे ? प्रभु कहते हैं कि ('मम गिरा') = मेरी वेदवाणी के द्वारा । सृष्टि के आरम्भ में दिया गया यह वेदज्ञान मनुष्य का सर्वहितकारी है। इसी से मानव कल्याण सम्भव है। प्रभु कहते हैं कि इस वेदज्ञान को अपनाकर (अया- अनया )= इस (तन्वा) = मानवदेह से वर्धस्व-तू वृद्धि को प्राप्त हो, आगे बढ़ और मोक्ष में अवस्थित हो। इस मानवदेह से ही मनुष्य मोक्ष तक पहुँच सकता है, अन्य पशु-पक्षियों के शरीर से यहाँ पहुँचने में समर्थ नहीं। मनुष्य को आगे बढ़ना है, परन्तु कहाँ ? (अधः ज्म:) = पृथिवी से ऊपर, (अधः वा दिवः) = और अन्तरिक्ष से ऊपर तथा (बृहतः) = इस विशाल (रोचनात्) = देदीप्यमान द्युलोक से (अधि) = ऊपर। यदि हम सारा समय केवल स्वास्थ्यनिर्माण में समाप्त कर देते हैं तो हम पृथिवीलोक से ऊपर नहीं उठे। यदि हम द्वेषादि की भावना को दूर कर हृदय के परिमार्जन में लगे रहते हैं
तो हम अन्तरिक्षलोक में ही स्थित हैं। इससे भी ऊपर उठकर हमें अपने मस्तिष्करूप द्युलोक को ज्ञान की ज्योति ज्योतिर्मय करना है, परन्तु यहाँ भी रुक तो नहीं जाना । यह ज्ञान भी तो सात्त्विक बन्धन ही है। इससे भी ऊपर उठकर हमें स्वयं देदीप्यमान ज्योति [ब्रह्म] को प्राप्त करना है।
इस मन्त्र के ऋषि ‘मेधातिथि' व 'मेध्यातिथि' हैं। अत् धातु का अर्थ 'निरन्तर जाना' होता है। जो निरन्तर मेधा की ओर चल रहा है वह मेधातिथि है, और वही मेध्य-पवित्र प्रभु की ओर जानेवाला भी बनता है। धुलोक में पहुँचकर हम मेधातिथि होते हैं, और उससे भी ऊपर उठकर ब्रह्मलोक में पहुँच हम मेध्यातिथि बनते हैं।
भावार्थ -
वेदवाणी को अपनाकर हम इस मानवदेह में आगे बढ़ें, और मोक्षसुख में अवस्थित हों।
इस भाष्य को एडिट करें