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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 539
ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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अ꣢धि꣣ य꣡द꣢स्मिन्वा꣣जि꣡नी꣢व꣣ शु꣢भः꣣ स्प꣡र्ध꣢न्ते꣣ धि꣢यः꣣ सू꣢रे꣣ न꣡ विशः꣢꣯ । अ꣣पो꣡ वृ꣢णा꣣नः꣡ प꣢वते꣣ क꣡वी꣢यान्व्र꣣जं꣡ न प꣢꣯शु꣣व꣡र्ध꣢नाय꣣ म꣡न्म꣢ ॥५३९॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡धि꣢꣯ । यत् । अ꣣स्मिन् । वाजि꣡नि꣢ । इ꣣व । शु꣡भः꣢꣯ । स्प꣡र्ध꣢꣯न्ते । धि꣡यः꣢꣯ । सू꣡रे꣢꣯ । न । वि꣡शः꣢꣯ । अ꣣पः꣢ । वृ꣣णानः꣢ । प꣣वते । क꣡वी꣢꣯यान् । व्र꣣ज꣢म् । न । प꣣शुव꣡र्ध꣢नाय । प꣣शु । व꣡र्ध꣢꣯नाय । म꣡न्म꣢꣯ ॥५३९॥


स्वर रहित मन्त्र

अधि यदस्मिन्वाजिनीव शुभः स्पर्धन्ते धियः सूरे न विशः । अपो वृणानः पवते कवीयान्व्रजं न पशुवर्धनाय मन्म ॥५३९॥


स्वर रहित पद पाठ

अधि । यत् । अस्मिन् । वाजिनि । इव । शुभः । स्पर्धन्ते । धियः । सूरे । न । विशः । अपः । वृणानः । पवते । कवीयान् । व्रजम् । न । पशुवर्धनाय । पशु । वर्धनाय । मन्म ॥५३९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 539
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
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पदार्थ -

(यत्) = यह सत्य है कि (अस्मिन्) = इस (वाजिनि) = शक्तिशाली पुरुष में (शुभः धियः) = शुभ कर्म या शुभ प्रज्ञाएँ (अधि) = आधिक्येन (स्पर्धन्ते इव) = स्पर्धा - सी करती हैं। सब प्रज्ञाएँ उस शक्तिशाली पुरुष में स्थान पाने के लिए लालायित - सी रहती हैं। वस्तुतः वीरता सब शुभ गुणों का आधार है। इस शक्तिशाली को आधार बनाने के लिए गुण स्पर्धावाले होते हैं। (न:) = जैसे (विश:) = प्रजाएँ सूरे-सूर्य में सूर्य के प्रकाश के लिए जैसे प्रजाएँ लालायित होती हैं उसी प्रकार गुण, शक्तिशाली पुरुष के लिए।

यह शक्तिशाली पुरुष (अपो वृणान:) कर्मों का वरण करता है - सदा कर्मनिष्ठ होता है। (पवते) = कर्मनिष्ठता के द्वारा अपने को पवित्र बनाता है। (कवीयान्) = यह अत्याधिक क्रान्तदर्शी होता है। वस्तुओं के तत्त्व को देखता है। पशुवर्धनाय = ['काम: पशुः, क्रोधः पशुः'] काम क्रोध पशु हैं। इनके वर्धन- छेदन के लिए (मन्म) = ज्ञान को (व्रज्रं न) = बाड़े की भाँति बनाता है। जैसे बाड़े में बन्द करके पशु को हम वश में कर लेते हैं, इसी प्रकार ज्ञानरूप बाड़े में हम काम-क्रोधरूप पशु को वशीभूत कर लेते हैं। वशीभूत काम पुरुषार्थ है - यह हमें लक्ष्य स्थान पर पहुँचाने के लिए आवश्यक है। घोड़ा बेकाबू होता है तो सवार को घसीटता है, पर काबू हुआ-हुआ वही उसे उद्दिष्ट स्थान पर पहुँचाता है। इसी प्रकार वशीभूत काम की बात है। उच्छृंखल काम हमें कुचल डालता है- नियन्त्रित काम प्रभु-प्राप्ति में सहायक होता है। यह काम-क्रोध का वशीकरण कण-कण करके, चींटी की चाल से धीमे-धीमे ही होगा। अतः इसका साधक ‘कण्व' कहलाता है। धीमे-धीमे इसका जीवन उदात्त व उदात्ततर और उदात्ततम होता जाता है।

भावार्थ -

हम अपने जीवन को ऐसा बनाएँ कि सब गुण हमें अपना आधार बनाएँ।

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