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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 540
ऋषिः - मन्युर्वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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इ꣡न्दु꣢र्वा꣣जी꣡ प꣢वते꣣ गो꣡न्यो꣢घा꣣ इ꣢न्द्रे꣣ सो꣢मः꣣ स꣢ह꣣ इ꣢न्व꣣न्म꣡दा꣢य । ह꣢न्ति꣣ र꣢क्षो꣣ बा꣡ध꣢ते꣣ प꣡र्यरा꣢꣯तिं꣣ व꣡रि꣢वस्कृ꣣ण्व꣢न्वृ꣣ज꣡न꣢स्य꣣ रा꣡जा꣢ ॥५४०॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्दुः꣢꣯ । वा꣣जी꣢ । प꣣वते । गो꣡न्यो꣢꣯घाः । गो । न्यो꣣घाः । इ꣡न्द्रे꣢꣯ । सो꣡मः꣢꣯ । स꣡हः꣢꣯ । इ꣡न्व꣢꣯न् । म꣡दा꣢꣯य । ह꣡न्ति꣢꣯ । र꣡क्षः꣢꣯ । बा꣡ध꣢꣯ते । प꣡रि꣢꣯ । अ꣡रा꣢꣯तिम् । अ । रा꣣तिम् । व꣡रि꣢꣯वः । कृ꣣ण्व꣢न् । वृ꣣ज꣡न꣢स्य । रा꣡जा꣢꣯ ॥५४०॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्दुर्वाजी पवते गोन्योघा इन्द्रे सोमः सह इन्वन्मदाय । हन्ति रक्षो बाधते पर्यरातिं वरिवस्कृण्वन्वृजनस्य राजा ॥५४०॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्दुः । वाजी । पवते । गोन्योघाः । गो । न्योघाः । इन्द्रे । सोमः । सहः । इन्वन् । मदाय । हन्ति । रक्षः । बाधते । परि । अरातिम् । अ । रातिम् । वरिवः । कृण्वन् । वृजनस्य । राजा ॥५४०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 540
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
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विषय - ज्ञान की तरंगे- ज्ञान का प्लावन
पदार्थ -
कामादि पशुओं के संहार के लिए जब मनुष्य ज्ञानरूप बाड़ा बनाता है तो उसका जीवन निम्न प्रकार से चलता है – १. (इन्दु:) = [ इन्द To be powerful] यह शक्तिशाली बनता है। कामादि वासनाएँ ही तो मनुष्य की शक्ति को जीर्ण करती हैं। २. (वाजी) = यह शक्ति ही इसे रोगों से युद्ध करने में समर्थ बनाती है। इसकी वीर्य शक्ति [vitality ] रोगकृमियों के विरोध में युद्ध करती है [Wages a war] एवं, इसका अन्नमयकोश बज्र - तुल्य दृढ़ होता है तो प्राणमयकोश रोगकृमियों के संहार की शक्तिवाला होता है। ३. (पवते) = इसका मन पवित्र होता है, और ४. (गो नि आधा:) = इसके विज्ञानमयकोश में ज्ञान की वाणियों का प्लावन [flood] सा आ जाता है, अर्थात इसकी बुद्धि सूक्ष्म होकर इसका ज्ञान बहुत ही बढ़ जाता है । ५. इन चारों कोशों में उत्कर्ष के साथ सबसे बड़ी बात यह होती है कि इस (इन्द्रे) = जितेन्द्रिय व्यक्ति में (सोमः) = वह शान्तरूप प्रभु (सह) = साथ रहते हुए (इन्वन्) = सदा इसे प्रेरणा देते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि मदाय इसके जीवन में मद व उल्लास होता है।
इस शक्ति के मद में यह ६. (हन्ति रक्षः) = सब राक्षसी वृत्तियों को समाप्त कर देता है। (अरातिं) = न देने की वृत्ति को (परिबाधते) = सर्वतः कुचल देता है। इसका जीवन अशुभ वृत्तियों से शून्य होकर पवित्र हो जाता है और पवित्र हृदय होकर यह ७. (वरिवः) = प्रभु की पूजा (कृण्वन्) = करता है और (वृजनस्य) = सब दोषों का वजन करनेवाली शक्ति का (राजा) = स्वामी होता है। शक्ति से इसका जीवन चमकता है। इस जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि ‘गोन्योधाः'=ज्ञानजल के प्लावनवाला होता है। ज्ञानातिरेक से ही इसका नाम 'मन्युः' [ज्ञानी] हो गया है। यह ‘वासिष्ठ' है-काम-क्रोध को वश में किए हुए है।
भावार्थ -
मैं ज्ञान-जल में तैरनेवाला बनूँ।
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