Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 573
ऋषिः - द्वित आप्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
5
प्र꣡ पु꣢ना꣣ना꣡य꣢ वे꣣ध꣢से꣣ सो꣡मा꣢य꣣ व꣡च꣢ उच्यते । भृ꣣तिं꣡ न भ꣢꣯रा म꣣ति꣡भि꣢र्जु꣣जो꣡ष꣢ते ॥५७३॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । पु꣣नाना꣡य꣢ । वे꣣ध꣡से꣢ । सो꣡मा꣢꣯य । व꣡चः꣢꣯ । उ꣣च्यते । भृति꣢म् । न । भ꣣र । मति꣡भिः꣢ । जु꣣जो꣡ष꣢ते ॥५७३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र पुनानाय वेधसे सोमाय वच उच्यते । भृतिं न भरा मतिभिर्जुजोषते ॥५७३॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । पुनानाय । वेधसे । सोमाय । वचः । उच्यते । भृतिम् । न । भर । मतिभिः । जुजोषते ॥५७३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 573
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 10;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 10;
Acknowledgment
विषय - गुरु शुश्रूषा
पदार्थ -
(प्र पुनानाय) = ज्ञान के द्वारा पवित्र करनेवाले (वेधसे) = मेधावी-ब्रह्मा के समान निर्माण के कार्य में लगे हुए (सोमाय) = सौम्यता के पुञ्ज आचार्य के लिए [आचार्यो मृत्युः वरुणः सोम ओषधयः पयः] हमसे (वचः उच्यते) = प्रशंसा के शब्द कहे जाते हैं। आचार्य सदा शिष्य के जीवन को पवित्र करने के लिए प्रयत्नशील होता है। ब्रह्मा की भाँति वह भी एक महान् निर्माण के कार्य में लगा है - इसपर मनुष्य के निर्माण का उत्तरदायित्व है। अत्यन्त उन्नत ज्ञा में स्थित होता हुआ भी यह विनीत है। शिष्य का कर्तव्य है कि वह गुरु के लिए सदा प्रशंसात्मक शब्दों का उच्चारण करे। गुरु - निन्दा करना तो दूर रहा - उसका श्रवण भी पाप है। सत् शिष्य गुरु की प्रशंसा करता है- प्रशंसा ही नहीं (भृतिं न भरा) = एक भृत्य की भाँति सेवा करनेवाला होता है।
‘गुरु शुश्रूषा' शब्द के दोनों ही अर्थ हैं - गुरु की सेवा व गुरु से सुनने की इच्छा । सच्छिष्य सेवक होता है, परन्तु ज्ञान के श्रवण में प्रमाद नहीं करता । एवं सेवा व सुनना दोनों का ही विस्तार करने से यह 'द्वित' है। "
ऐसा ही शिष्य ज्ञान प्राप्त करनेवालों में उत्तम होता है, अतः ‘आप्त्य' है। यह शिष्य उस आचार्य की सेवा करता है जो (मतिभिः) = ज्ञानों के द्वारा (जुजोषते) = शिष्य का प्रीतिपूर्वक सेवन करता है।
शिष्य भी ‘द्वित’ हो– सेवा करे और सुने । गुरु भी 'द्वित' हो - प्रेम की भावनावाला हो और ज्ञान का सतत विकास करे। इस प्रकार दोनों द्वित होंगे तो ज्ञान को प्राप्त करने-करानेवाले ये ‘आप्त्य' कहलाएँगे।
भावार्थ -
‘सेवा भी, सुनना भी' यह शिष्य के जीवन का सूत्र है।
इस भाष्य को एडिट करें