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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 601
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधावाङ्गिरसौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
6
य꣡ज्जाय꣢꣯था अपूर्व्य꣣ म꣡घ꣢वन्वृत्र꣣ह꣡त्या꣢य । त꣡त्पृ꣢थि꣣वी꣡म꣢प्रथय꣣स्त꣡द꣢स्तभ्ना उ꣣तो꣡ दिव꣢꣯म् ॥६०१॥
स्वर सहित पद पाठय꣢त् । जा꣡य꣢꣯थाः । अ꣣पूर्व्य । अ । पूर्व्य । म꣡घ꣢꣯वन् । वृ꣣त्रह꣡त्या꣢य । वृ꣣त्र । हत्या꣢꣯य । तत् । पृ꣣थिवी꣢म् । अ꣣प्रथयः । त꣢त् । अ꣣स्तभ्नाः । उत꣢ । उ꣣ । दि꣡व꣢꣯म् ॥६०१॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्जायथा अपूर्व्य मघवन्वृत्रहत्याय । तत्पृथिवीमप्रथयस्तदस्तभ्ना उतो दिवम् ॥६०१॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । जायथाः । अपूर्व्य । अ । पूर्व्य । मघवन् । वृत्रहत्याय । वृत्र । हत्याय । तत् । पृथिवीम् । अप्रथयः । तत् । अस्तभ्नाः । उत । उ । दिवम् ॥६०१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 601
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 2;
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विषय - पृथिवी का प्रथव, दिव् का स्तम्भन
पदार्थ -
(अपूर्व्य) = अपने में प्रभु की भावना का पूरण करनेवालों में उत्तम (मघवन्) = पाप के लवलेश से शून्य जीव ! (यत्) = जब तू (वृत्रहत्याय) = वृत्र के नाश के लिए (जायथा) = सन्नद्ध होता है (तत्) = तो (पृथिवीम्) = पृथिवी को अपने इस पार्थिव शरीर को (अप्रथयः) = विस्तृत करता है (उत उ) = और निश्चय से (तत्) = तभी (दिवम्) = द्युलोक को अर्थात् अपने मस्तिष्क को (अस्तभङाः) = स्थिर करके–‘स्थितप्रज्ञ' होता है। 'वृत्र' वासना है। वासना का विनाश शरीर के स्वास्थ्य के लिए भी आवश्यक है और मस्तिष्क की तीव्रता व स्थिरता के लिए भी। इस वासना के विनाश के लिए प्रभु की भावना को अपने अन्दर भरने का यत्न करता है। जहाँ प्रभु की भावना है- उस हृदय में वासना कहाँ ?
वासना से बचने के लिए यह 'नृमेध व पुरुमेध' बनता है - केवल स्वार्थमय जीवन न बिताकर औरों के सम्पर्क में आता है और इसका सम्पर्क उनका पालन व पूरण करनेवाला होता है। यह लोकहित में लगना ही प्रभु की भावना को अपने अन्दर भरना है। इससे शरीर स्वस्थ बनता है और बुद्धि स्थिर । यही पृथिवी का प्रथव है और द्युलोक का स्तम्भन । वैदिक साहित्य में 'पृथिवी शरीरम्, मूर्ध्ना द्यौः '' पृथिवी' शरीर है 'द्युलोक' मस्तिष्क ।
भावार्थ -
मैं वृत्रहत्या के - वासना - विनाश के द्वारा स्वस्थ शरीर व स्थिर बुद्धि बनूँ।
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