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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 604
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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त्व꣢मि꣣मा꣡ ओष꣢꣯धीः सोम꣣ वि꣢श्वा꣣स्त्व꣢म꣣पो꣡ अ꣢जनय꣣स्त्वं꣢ गाः । त्व꣡मात꣢꣯नोरु꣣र्वा꣢३न्त꣡रि꣢क्षं꣣ त्वं꣡ ज्योति꣢꣯षा꣣ वि꣡ तमो꣢꣯ ववर्थ ॥६०४॥

स्वर सहित पद पाठ

त्व꣢म् । इ꣣माः꣢ । ओ꣡ष꣢꣯धीः । ओ꣡ष꣢꣯ । धीः꣣ । सोम । वि꣡श्वाः꣢꣯ । त्वम् । अ꣣पः꣢ । अ꣣जनयः । त्व꣢म् । गाः । त्वम् । आ । अ꣣तनोः । उरु꣢ । अ꣣न्त꣡रि꣢क्षम् । त्वम् । ज्यो꣡ति꣢꣯षा । वि । त꣡मः꣢꣯ । व꣣वर्थ ॥६०४॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वमिमा ओषधीः सोम विश्वास्त्वमपो अजनयस्त्वं गाः । त्वमातनोरुर्वा३न्तरिक्षं त्वं ज्योतिषा वि तमो ववर्थ ॥६०४॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । इमाः । ओषधीः । ओष । धीः । सोम । विश्वाः । त्वम् । अपः । अजनयः । त्वम् । गाः । त्वम् । आ । अतनोः । उरु । अन्तरिक्षम् । त्वम् । ज्योतिषा । वि । तमः । ववर्थ ॥६०४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 604
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3;
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पदार्थ -

प्रभु राहूगण से कहते हैं कि - हे (सोम) = विनीत! १ . (त्वम्) = तूने (इमा:) = इन (विश्वा:) = सब (ओषधी:) = दोष-दहन की प्रक्रियाओं को (अजनयः) = उत्पन्न किया है, अर्थात् तूने अपने दोषों को भस्म कर दिया है [उष् दाहे]। ओषधि भी ओषधि इसीलिए कहलाती है कि वह दोषों को जला देती है। 

२. (त्वम्) = तूने (अपः) = व्यापक कर्मों को (अजनयः) = अपने में विकसित किया है। यह राहूगण ‘स्वार्थ' को छोड़ने के कारण व्यापक हित के दृष्टिकोण से कर्म करता है। इसके कर्म अधिक-से-अधिक भूतों का हित करनेवाले, अतएव सत्य व व्यापक होते हैं। 

३. (त्वम्) = तूने (गाः) = अपने अन्दर वेदवाणियों को उत्पन्न किया है। राहूगण ने अपने कर्मों को पवित्र बनाये रखने के लिए ज्ञान का सम्पादन आवश्यक समझा और इस ज्ञान से ही वस्तुतः वह स्वार्थभाव से ऊपर उठ सका। 

४. (त्वम्) = तूने (उरु अन्तरिक्षम्) = विशाल हृदयान्तरिक्ष को (आतनो:) = विस्तृत किया । वास्तव में एक ओर कर्म है, दूसरी ओर हृदय की विशालता है। इन दोनों के बीच में ज्ञान है। ज्ञान ने ही कर्मों को पवित्र बनाया है और हृदय को विशाल । 

५. इस प्रकार हे राहूगण (त्वम्) = तूने (ज्योतिषा) = ज्योति के द्वारा (तमः) = अन्धकार को (विववर्थ) = विवृत - दूर कर दिया।

यह राहूगण ‘अपने दोषों को जलाना, कर्मों को पवित्र करना, ज्ञान को दीप्त करना व हृदय को विशाल बनाना' इन बातों को सिद्ध करता हुआ अपने जीवन को सुन्दर बनाता है। इसके बाद यह ज्ञान के प्रसार से लोक के अन्धकार को दूर करने का प्रयत्न करता है। यह पूर्ण त्याग का जीवन बिताते हुए सचमुच 'राहूगण' होता है। इसे ही हम सामान्य भाषा में संन्यासी कहते हैं ।

भावार्थ -

हम दोष-दहन, व्यापक कर्म, ज्ञान व विशाल हृदयता को सिद्ध करते हुए ज्ञान की ज्योति के प्रसार से अन्धकार को नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील हो ।

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