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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 62
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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स꣡खा꣢यस्त्वा ववृमहे दे꣣वं꣡ मर्ता꣢꣯स ऊ꣣त꣡ये꣢ । अ꣣पां꣡ नपा꣢꣯तꣳ सु꣣भ꣡ग꣢ꣳ सु꣣द꣡ꣳस꣢सꣳ सु꣣प्र꣡तू꣢र्तिमने꣣ह꣡स꣢म् ॥६२॥

स्वर सहित पद पाठ

स꣡खा꣢꣯यः । स꣢ । खा꣣यः । त्वा । ववृमहे । देवम्꣢ । म꣡र्ता꣢꣯सः । ऊ꣣त꣡ये꣢ । अ꣣पा꣢म् । न꣣पा꣢꣯तम् । सु꣣भ꣡ग꣢म् । सु꣣ । भ꣡ग꣢꣯म् । सु꣣दँ꣡ऽस꣢सम् । सु꣣ । दँ꣡स꣢꣯सम् । सु꣣प्र꣡तू꣢र्तिम् । सु꣣ । प्र꣡तू꣢꣯र्त्तिम् । अ꣣नेह꣡स꣢म् । अ꣣न् । एह꣡स꣢म् ॥६२॥


स्वर रहित मन्त्र

सखायस्त्वा ववृमहे देवं मर्तास ऊतये । अपां नपातꣳ सुभगꣳ सुदꣳससꣳ सुप्रतूर्तिमनेहसम् ॥६२॥


स्वर रहित पद पाठ

सखायः । स । खायः । त्वा । ववृमहे । देवम् । मर्तासः । ऊतये । अपाम् । नपातम् । सुभगम् । सु । भगम् । सुदँऽससम् । सु । दँससम् । सुप्रतूर्तिम् । सु । प्रतूर्त्तिम् । अनेहसम् । अन् । एहसम् ॥६२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 62
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6;
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पदार्थ -

प्रभु ने जीव को स्वतन्त्रता दी है, अतः प्रभु जीव की रक्षा तभी करते हैं जब जीव रक्षक के रूप में उन्हीं का वरण करे। योग्य से योग्य डाक्टर किसी रोगी का बिना कहे इलाज शुरू नहीं कर देता । प्रभु ने तो हमें स्वतन्त्रता दी है, वह बिना कहे उसमें क्यों हस्तक्षेप करे! परन्तु जो समझदार हैं वे डाक्टर के रूप में प्रभु का वरण करते हैं। (सखायः)=तेरे सखा बनकर (त्वा) =  तुझे (ववृमहे) वरते हैं। प्रभु से रक्षा चाहने का अधिकार भी तो हमें तभी है जब हम कुछ उस-जैसे बनने का प्रयत्न करें। यही भावना 'सखा' शब्द से व्यक्त की गई है। (सखा)=समान ख्यातिवाले, कुछ-कुछ उस - जैसे स्वरूपवाले [God like]।

(देवम्)=आप तो सदा देने के लिए तैयार ही हो, (मर्त्तासः) = हम मर्त हैं, सदा मृत्यु रोगों का शिकार हैं; क्या शारीरिक और क्या मानस, आधि-व्याधियाँ हमें सदा व्याकुल किया करती हैं। (ऊतये)=रक्षा के लिए हम मर्त तुझ देव का वरण करते हैं।

प्रभु की रक्षा का प्रकार मन्त्र के उत्तरार्ध में दिये गये पाँच विशेषणों से स्पष्ट हो रहा है। 
१. (अपां न-पातम्) = आप शक्ति [आप: = रेतः] को नष्ट न होने देनेवाले हो । प्रभु - स्मरण से वीर्यरक्षा होती है। २. (सुभगम्) = उत्तम एश्वर्य प्रदाता हो । ३. (सुदंससम्) = आप उत्तम कर्मों में प्रेरित करनेवाले हो । ४. (सुप्रतूर्तिम्) = अज्ञान का खूब ही ध्वंस करनेवाले हो [तुर्वी - हिंसायाम्] और इस प्रकार ५. (अनेहसम्)=पवित्र=Sinles= पवित्र बनानेवाले हो। इन्हीं पाँच क्रमों से प्रभु हमारी रक्षा करते हैं ।

भावार्थ -

हम सखा बनकर प्रभु को रक्षक के रूप में वरने के अधिकारी बनें। प्रभु का सखा प्राणिमात्र का मित्र होता है, अतः हम इस मन्त्र के ऋषि 'विश्वामित्र' बनेंगे।

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