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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 628
ऋषिः - विभ्राट् सौर्यः देवता - सूर्यः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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वि꣣भ्रा꣢ड्बृ꣣ह꣡त्पि꣢बतु सो꣣म्यं꣢꣫ मध्वायु꣣र्द꣡ध꣢द्य꣣ज्ञ꣡प꣢ता꣣व꣡वि꣢ह्रुतम् । वा꣡त꣢꣯जूतो꣣ यो꣡ अ꣢भि꣣र꣡क्ष꣢ति꣣ त्म꣡ना꣢ प्र꣣जाः꣡ पि꣢पर्ति ब꣣हुधा꣡ वि रा꣢꣯जति ॥६२८॥

स्वर सहित पद पाठ

वि꣣भ्रा꣢ट् । वि꣣ । भ्रा꣢ट् । बृ꣣ह꣢त् । पि꣣बतु । सोम्य꣢म् । म꣡धु꣢꣯ । आ꣡युः꣢꣯ । द꣡ध꣢꣯त् । य꣣ज्ञ꣡प꣢तौ । य꣣ज्ञ꣢ । प꣣तौ । अ꣡वि꣢꣯ह्रुतम् । अ꣡वि꣢꣯ । ह्रु꣣तम् । वा꣡त꣢꣯जूतः । वा꣡त꣢꣯ । जू꣣तः । यः꣢ । अ꣣भिर꣡क्ष꣢ति । अ꣣भि । र꣡क्ष꣢꣯ति । त्म꣡ना꣢꣯ । प्र꣣जाः꣢ । प्र । जाः꣢ । पि꣣पर्त्ति । बहुधा꣢ । वि । रा꣣जति ॥६२८॥


स्वर रहित मन्त्र

विभ्राड्बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविह्रुतम् । वातजूतो यो अभिरक्षति त्मना प्रजाः पिपर्ति बहुधा वि राजति ॥६२८॥


स्वर रहित पद पाठ

विभ्राट् । वि । भ्राट् । बृहत् । पिबतु । सोम्यम् । मधु । आयुः । दधत् । यज्ञपतौ । यज्ञ । पतौ । अविह्रुतम् । अवि । ह्रुतम् । वातजूतः । वात । जूतः । यः । अभिरक्षति । अभि । रक्षति । त्मना । प्रजाः । प्र । जाः । पिपर्त्ति । बहुधा । वि । राजति ॥६२८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 628
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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पदार्थ -

(ब्रह्मचर्य–) मानव-जीवन की यात्रा में प्रथम प्रयाण ‘ब्रह्मचर्याश्रम' कहलाता है। इसमें मनुष्य १. (विभ्राट्) = विशेषरूप से [भ्राज- दीप्ति] दीप्त होनेवाला, चमकनेवाला बने। आचार्य द्वारा इसकी ज्ञानाग्नि पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोकरूपी तीन समिधाओं से समिद्ध की जाती है और यह ब्रह्मचारी ज्ञान की दीप्ति से चमक उठता है । इस आश्रम का मूल कर्त्तव्य ‘ब्रह्म’=ज्ञान का ‘चर' - भक्षण ही तो है। २. (बृहत्) = [ वृहि वृद्धौ ] ब्रह्मचारी को सब दृष्टिकोणों से– ‘शरीर-मन व बुद्धि' के विचार से वृद्धि का सम्पादन करना है। ३. ज्ञान की दीप्ति के लिए तथा सब दृष्टिकोणों से वृद्धि के लिए ही ब्रह्मचारी (सोम्यं मधु) = सोम-सम्बन्धी मधु का (पिबतु) = पान करे। सोम- semen = वीर्य का नाम है, आहार का सार होने से यह 'मधु' है । मधु शहद भी पुष्प-रसों का सार ही होता है। इस वीर्य रक्षा से ही यह अपनी ज्ञानाग्नि को समिद्ध करेगा। इसी से रोग-कृमियों को नष्ट करके यह शरीर को नीरोग बनाएगा और वीर्यवान् होने पर द्वेष की भावना से ऊपर उठकर निर्मल मनवाला होगा।

(गृहस्थ)— अब यह ब्रह्मचारी गृहस्थ में प्रवेश करता है। यहाँ इसे 'ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ और बलिवैश्वदेव यज्ञ' नामक पाँच यज्ञों को करते हुए चलना है, परन्तु इन यज्ञों के कर्तृत्व का स्वयं गर्व न करके इसने उस प्रभु को ही इन यज्ञों के पति के रूप में देखना है। प्रभु-कृपा से ही ये पूर्ण होते हैं, वे प्रभु ‘यज्ञस्य देवम्'- यज्ञों के प्रकाशक हैं, ‘होतारम्'=वस्तुत: 'होता' ।' प्रभु ही हैं। (यज्ञपतौ) = उस यज्ञों के रक्षक प्रभु में (अविद्रुतम्) = कुटिलताशून्य (आयु:) = जीवन को (दधत्) = धारण करता हुआ यह गृहस्थ जीवन-यात्रा में आगे बढ़े। एवं, गृहस्थ के लिए तीन बातें हैं - १. यज्ञमय जीवन बिताये, २. यज्ञों का गर्व न कर प्रभु को ही यज्ञपति माने, ३. कुटिलता से दूर रहे।

(वानप्रस्थ) – अब यह गृहस्थ 'वनस्थ' बनता है। वानप्रस्थ वह है (यः) = जो (वातजूतः) = प्राणों से प्रेरित हुआ-हुआ (त्मना)=आत्मना-अपने मन के द्वारा (अभिरक्षति) = अपनी सर्वतः रक्षा करता है। प्राणायाम की नियमित साधना से यह चित्तवृत्ति का निरोध करता है और इस निरुद्ध चित्त के द्वारा यह अपनी रक्षा करता है। ('मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः') = मन ही तो मनुष्यों के बन्ध व मोक्ष का कारण है। मन मित्र भी है, शत्रु भी। मन को वश में कर लिया तो यह मित्र है और यदि हम मन के वश में हो गये तो यह शत्रु है। इस मन की वृत्ति को वशीभूत करने के लिए साधकतम 'प्राणायाम' है। एवं, वनस्थ - १. प्राणायाम करता है, २. इसके द्वारा चित्तवृत्ति को वश में करने का प्रयत्न करता है, ३. रक्षित चित्त के द्वारा आसुर वृत्तियों के आक्रमण से अपनी रक्षा करता है।

(ब्रह्माश्रमी)–उपर्युक्त साधना के बाद आज यह मानव जीवन यात्रा की अन्तिम मंजिल में प्रवेश करता है और यहाँ (प्रजा:) = प्रजाओं का (पिपर्ति) = पालन व पूरण करता है। उन्हें प्रभु का उपदेश देता हुआ कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है। उनके दोषों को उचित प्रेरणा द्वारा दूर करने का प्रयत्न करता है और यह (बहुधा) =  बहुतों का धारण करनेवाला (विराजति) = विशेषरूप से दीप्त होता है। 

मानवममात्र का पालन करते हुए सब प्रकार के स्वार्थों से ऊपर उठ जाने के कारण यह विशेष चमकवाला होता है। सबके पालन करनेवाले सूर्य की भाँति चमकने से यह ‘विभ्राट् सौर्यः' कहलाता है और इस प्रकार अपनी जीवन-यात्रा को सफलता के साथ समाप्त करता है।

भावार्थ -

हम अपनी जीवन-यात्रा के सभी प्रयाणों को उत्तमता से पूर्ण करनेवाले हों ।

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