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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 638
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - सूर्यः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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उ꣡द्द्यामे꣢꣯षि꣣ र꣡जः꣢ पृ꣣थ्व꣢हा꣣ मि꣡मा꣢नो अ꣣क्तु꣡भिः꣢ । प꣢श्य꣣ञ्ज꣡न्मा꣢नि सूर्य ॥६३८॥
स्वर सहित पद पाठउ꣢त् । द्याम् । ए꣣षि । र꣡जः꣢꣯ । पृ꣣थु꣢ । अ꣡हा꣢꣯ । अ । हा꣣ । मि꣡मा꣢꣯नः । अ꣣क्तु꣡भिः꣢ । प꣡श्य꣢꣯न् । ज꣡न्मा꣢꣯नि । सू꣣र्य ॥६३८॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्द्यामेषि रजः पृथ्वहा मिमानो अक्तुभिः । पश्यञ्जन्मानि सूर्य ॥६३८॥
स्वर रहित पद पाठ
उत् । द्याम् । एषि । रजः । पृथु । अहा । अ । हा । मिमानः । अक्तुभिः । पश्यन् । जन्मानि । सूर्य ॥६३८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 638
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 12
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 12
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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विषय - सबके हित को देखनेवाला
पदार्थ -
प्रस्कण्व अपने को ऊँचे-से- ऊँचा ज्ञानी बनाने का प्रयत्न करता है। वह ज्ञान से सूर्य की भाँति चमकने लगता है और ज्ञान को सूर्य की भाँति निरन्तर सरणशील, क्रियाशील भी तो बनाता है। जैसे यह सूर्य द्युलोक में उदित होता है उसी प्रकार हे प्रस्कण्व! तू भी १. (द्याम् उत् एषि) = इस मस्तिष्करूप द्युलोक में उदय को प्राप्त होता है, अर्थात् तू अपने ज्ञान को अधिक और अधिक बढ़ाता चलता है। इस ज्ञान - विस्तार के परिणामरूप ही तू २. (पृथुरजः) = इस विस्तृत हृदयान्तरिक्ष में उदित होता है, अर्थात् तू अपने हृदय को विशाल बनाता है। ३. तू (अक्तुभिः) = ज्ञान की रश्मियों के द्वारा अपने जीवन के (अहा) = दिनों को (मिमानः) = उत्तम बनानेवाला होता है। ‘सुदिनत्वमह्णाम्'='मुझे दिनों का शोभनत्व प्राप्त हो' यह प्रार्थना तेरे जीवन में क्रियात्मकरूप धारण करती है।
एवं, मस्तिष्क को दीप्त, हृदय को विशाल और प्रकाश से दिनों को उत्तम बनाता हुआ तू (जन्मानि) = जन्म धारण करनेवाले सब प्राणियों को (पश्यन्) = देखनेवाला होता है - उन सबके हित का ध्यान करता है। जैसे सूर्य अपने लिए थोड़े ही चमकता है? वह लोगों को प्रकाश देने के लिए अपने मार्ग पर निरन्तर चल रहा है, इसी प्रकार तू भी लोकहित के लिए क्रियाशील हो रहा है और इस प्रकार तू सचमुच ही सूर्य है।
भावार्थ -
मस्तिष्क को उज्ज्वल, हृदय को विशाल व दिनों को शुभ बनाता हुआ मैं लोकहित में प्रवृत्त रहूँ।
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