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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 640
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - सूर्यः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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स꣣प्त꣡ त्वा꣢ ह꣣रि꣢तो꣣ र꣢थे꣣ व꣡ह꣢न्ति देव सूर्य । शो꣣चि꣡ष्के꣢शं विचक्षण ॥६४०॥
स्वर सहित पद पाठस꣣प्त꣢ । त्वा꣣ । हरि꣡तः꣢ । र꣡थे꣢꣯ । व꣡ह꣢꣯न्ति । दे꣣व । सूर्य । शोचि꣡ष्केश꣢म् । शो꣣चिः꣢ । के꣣शम् । विचक्षण । वि । चक्षण ॥६४०॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य । शोचिष्केशं विचक्षण ॥६४०॥
स्वर रहित पद पाठ
सप्त । त्वा । हरितः । रथे । वहन्ति । देव । सूर्य । शोचिष्केशम् । शोचिः । केशम् । विचक्षण । वि । चक्षण ॥६४०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 640
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 14
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 14
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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विषय - प्रभु-मन्दिर में पहुँचना
पदार्थ -
वह व्यक्ति, जो इन्द्रियों, मन व बुद्धि को आत्मा में संयुक्त करने का प्रयत्न करता है, पतन की ओर न जाकर शुद्ध बनता हुआ दिव्यगुणों से युक्त होकर 'देव' बनता है। विशेष दृष्टिकोणवाला होने से ‘विचक्षण' होता है, लोकहित के लिए निष्कामभाव से क्रियाशील होने के कारण ‘सूर्य' होता है। ज्ञानरश्मियों की दीप्ति के कारण यह 'शोचिष्केश' कहलाता
मन्त्र में कहते हैं कि हे (देव! सूर्य! विचक्षण! शोचिष्केशम्) = दीप्त ज्ञानरश्मिवाले (त्वा) = तुझे (रथे) = इस शरीररूप रथ में (सप्त हरितः) = ज्ञानेन्द्रियाँ, मन व बुद्धिरूप सात घोड़े (वहन्ति) = उस प्रभु की ओर ले चलते हैं। यह जीव अपने अन्दर उस प्रभु की प्रभा को देखता है। उसे अपने शरीररूप रथ का नियन्ता वह प्रभु ही प्रतीत होता है । इन्द्रियरूप घोड़े 'हरितः ' - हरण करनेवाले हैं। इन्हें हम वश में करने का प्रयत्न करते हैं तो ये हमें उस प्रभु को प्राप्त कराते हैं। अवशीभूत होने पर हमें विषयों में जा फँसाते हैं। 'प्रस्कण्व' को ये प्रभु को प्राप्त कराते हैं। इस प्रस्कण्व की वृत्ति दैवी होती है न कि दानवी। 'इसके ज्ञान पर कभी काम का आवरण नहीं आता', अतः यह 'शोचिष्केश' कहलाता है।
भावार्थ -
मेरे इन्द्रियरूप सात घोड़े मुझे प्रभु को प्राप्त कराएँ ।
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