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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 646
ऋषिः - प्रजापतिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - 0
3
ई꣢शे꣣ हि꣢ श꣣क्र꣢꣫स्तमू꣣त꣡ये꣢ हवामहे꣣ जे꣡ता꣢र꣣म꣡प꣢राजितम् । स꣡ नः꣢ स्व꣣र्ष꣢द꣣ति द्वि꣢षः꣣ क्र꣢तु꣣श्छ꣡न्द꣢ ऋ꣣तं꣢ बृ꣣ह꣢त् ॥६४६
स्वर सहित पद पाठई꣡शे꣢꣯ । हि । श꣣क्रः꣢ । तम् । ऊ꣣त꣡ये꣢ । ह꣣वामहे । जे꣡ता꣢꣯रम् । अ꣡प꣢꣯राजितम् । अ । प꣣राजितम् । स꣢ । नः꣣ । स्वर्षत् । अ꣡ति꣢꣯ । द्वि꣡षः꣢꣯ । क्र꣡तुः꣢꣯ । छ꣡न्दः꣢꣯ । ऋ꣣तम् । बृ꣣ह꣢त् ॥६४६॥
स्वर रहित मन्त्र
ईशे हि शक्रस्तमूतये हवामहे जेतारमपराजितम् । स नः स्वर्षदति द्विषः क्रतुश्छन्द ऋतं बृहत् ॥६४६
स्वर रहित पद पाठ
ईशे । हि । शक्रः । तम् । ऊतये । हवामहे । जेतारम् । अपराजितम् । अ । पराजितम् । स । नः । स्वर्षत् । अति । द्विषः । क्रतुः । छन्दः । ऋतम् । बृहत् ॥६४६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 646
(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 6
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 6
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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विषय - द्वेष से दूर
पदार्थ -
(ईशे हि) = जो निश्चय से अपना ईश होता है - अपनी इन्द्रियों का स्वामी होता है, वही (शक्रः) = शक्तिशाली बनता है, समर्थ होता है, तथा प्रत्येक कार्य में सफलता लाभ करता है। ऐसे ही (जेतारम्) = काम-क्रोधादि शत्रुओं को जीतनेवाले तथा (अपराजितम्) = कभी भी कामादि से पराजित न होनेवाले (तम्) = उस राजा को (ऊतये) = रक्षा के लिए (हवामहे) = पुकारते हैं। मन्त्र के इन शब्दों से यह स्पष्ट है कि राजा जितेन्द्रिय होना चाहिए। बिना जितेन्द्रियता के वह राज-कार्य में सफल नहीं हो सकता। यदि वह काम-क्रोधादि को नहीं जीत सकता तो प्रजा के मनों को भी वह क्या जीतेगा?
(सः) = वह राजा (नः) = हमें (द्विषः) = सब द्वेष भावनाओं से (अतिस्वर्षत्) = पार ले जाए । राजा का मूल कर्त्तव्य यह है कि वह प्रजाओं में प्रेम का संचार करे, ताकि वे एक-दूसरे की उन्नति में सहायक हों।
राजा की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह
१. (क्रतुः) = दृढ़ - संकल्पवाला हो । ढिलमिल स्वभाववाला व्यक्ति शासन में कभी सफल नहीं हो सकता।
२. (छन्दः) = राजा वेद का ज्ञाता हो । वेद के छन्द उसे सदा पाप से बचानेवाले हों [छन्दांसि छादनात्] ।
३. (ऋतम्) = उसका जीवन ऋत का पालन करनेवाला हो । वह सूर्य और चन्द्रमा की भाँति अपने जीवन में नियमित गतिवाला हो।
४. (बृहत्) = यह बढ़े हुए मनवाला हो। इसका हृदय संकुचित भावनाओंवाला न हो। अन्यथा यह विविध मनोवृत्तिवाली प्रजाओं में सबके साथ पक्षपातशून्य बर्ताव न कर सकेगा।
भावार्थ -
राजा स्वयं जितेन्द्रिय हो तथा प्रजाओं को परस्पर द्वेष की भावना से दूर रक्खे ।
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