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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 650
ऋषिः - प्रजापतिः
देवता - लिङ्गोक्ताः
छन्दः - पदपङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - 0
6
ए꣣वा꣢ह्येऽ३ऽ३ऽ३व꣡ । ए꣣वा꣡ ह्य꣢ग्ने । ए꣣वा꣡ही꣢न्द्र । ए꣣वा꣡ हि पू꣢꣯षन् । ए꣣वा꣡ हि दे꣢꣯वाः ॐ ए꣣वा꣡हि दे꣢꣯वाः ॥६५०
स्वर सहित पद पाठए꣣व꣢ । हि । ए꣣व꣢ । ए꣢व । हि । अ꣣ग्ने । एव꣢ । हि । इ꣣न्द्र । एव꣢ । हि । पू꣣षन् । एव꣢ । हि । दे꣣वाः । ॐ ए꣣वा꣡हिदे꣢꣯वाः ॥६५०॥
स्वर रहित मन्त्र
एवाह्येऽ३ऽ३ऽ३व । एवा ह्यग्ने । एवाहीन्द्र । एवा हि पूषन् । एवा हि देवाः ॐ एवाहि देवाः ॥६५०
स्वर रहित पद पाठ
एव । हि । एव । एव । हि । अग्ने । एव । हि । इन्द्र । एव । हि । पूषन् । एव । हि । देवाः । ॐ एवाहिदेवाः ॥६५०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 650
(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 10
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 10
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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विषय - प्रभु व जीव का वार्तालाप
पदार्थ -
हे प्रभो! मैं तो (एवा हि एव) = ऐसा ही बनूँगा । सखा, सुशेव और अद्वयु। ऐसा ही और ऐसा ही। जीव के ऐसे दृढ़ निश्चय को सुनकर प्रभु कहते हैं कि ऐसा तो तुझे बनना ही चाहिए।
मनुष्य जीवन चार भागों में बँटा है - १. ब्रह्मचर्याश्रम - में जीवन में अग्नि बनना है - आगे बढ़नेवाला व अग्नि के समान तेजस्वी २. गृहस्थ = यहाँ शतश: प्रलोभनों के होते हुए उसने इन्द्र=इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनने का प्रयत्न करना है, ३. वानप्रस्थ - इसमें उसे गृहस्थ में आ गई थोड़ी-बहुत कमी को अपने को परमेश्वर से गुणित करके दूर करना है। फिर से अपना पोषण करने से यहाँ वह 'पूषन्' कहलाता है, ४. संन्यास - यहाँ वह सब सङ्गों को त्याग देता है, अपना जीवन भी लोकहित के लिए दे डालता है। दीपन, द्योतन व दान के कारण वह सचमुच 'देव' बन जाता है।
प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (अग्ने) ! = यदि तू प्रथमाश्रम में स्थित होने से अग्नि नामवाला है तो तू यही निश्चय कर कि (एवा हि) = ऐसा ही, अर्थात् 'सखा, सुशेव और अद्वयु' बनना है। यदि तू द्वितीयाश्रम में होकर इन्द्र उपाधिवाला हुआ है तो (एवा हि इन्द्र) = ऐसा ही बन । तृतीयाश्रम का पूषन् होकर भी (एवा हि) = ऐसा ही तुझे बनना है और चौथे आश्रम में देव पदवीवाला होकर भी तूने ऐसा ही बनना । जिस किसी भी आश्रम में होना, तेरा लक्ष्य यही हो ‘सखा, सुशेवः, अद्वयुः' । इन्हीं तीन शब्दों को तूने जप करना, इन्हीं का चिन्तन और इन्हीं को अपने जीवन में अनूदित करने के लिए तेरा सारा प्रयत्न हो। यहाँ तीन बार ३ का अंक यह संकेत करता है कि ये तीनों बातें समवेतरूप में ही तेरे अन्दर हों, तीनों ही आवश्यक हैं।
भावार्थ -
हम अर्य बनें, शूर हों, सखा, सुशेव व अद्वयु बनना हमारा आदर्श हो। हम दृढ़ निश्चय करें कि ऐसा ही बनना है।
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