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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 652
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣣भि꣢ ते꣣ म꣡धु꣢ना꣣ प꣡योऽथ꣢꣯र्वाणो अशिश्रयुः । दे꣣वं꣢ दे꣣वा꣡य꣢ देव꣣यु꣢ ॥६५२॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡भि꣢ । ते꣣ । म꣡धु꣢꣯ना । प꣡यः꣢꣯ । अ꣡थ꣢꣯र्वाणः । अ꣣शिश्रयुः । देव꣢म् । दे꣣वा꣡य꣢ । दे꣣व꣢यु ॥६५२॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि ते मधुना पयोऽथर्वाणो अशिश्रयुः । देवं देवाय देवयु ॥६५२॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । ते । मधुना । पयः । अथर्वाणः । अशिश्रयुः । देवम् । देवाय । देवयु ॥६५२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 652
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

(अथर्वा) = पिछले मन्त्र में उन्नति के मार्ग का उल्लेख था । जिस नर को जीवन के उद्देश्य का स्मरण रहता है वह इस मार्ग पर निरन्तर आगे और आगे बढ़ा चला जाता है । उद्देश्य विस्मरण होते ही हम पथ-भ्रष्ट हो जाते हैं— डाँवाँडोल हो जाते हैं, परन्तु ते - वे उन्नति के लिए कटिबद्ध नर तो (अ-थर्वाणः) = डाँवाँडोल नहीं होते [थर्वतिः चरतिकर्मा–तत् प्रतिषेधः]। ये अथर्वा लोग (अभि) = क्या भौतिक व क्या आध्यात्मिक – दोनों स्तरों पर (मधुना पय:) = मधु के साथ पयस् का (अशिश्रयुः) = सेवन करते हैं ।

(मधु+पयस्) = मधु शहद का नाम है, जो सब ओषधियों की सारभूत अत्यन्त सात्त्विक वस्तु है । पयस् ओप्यायी वृद्धौ-वृद्धि का साधनभूत दूध है । ताज़ा दूध तो साक्षात् अमृत ही है। इनका सेवन (आहार शुद्धौ सत्त्वशुद्धिः) = हमारे अन्तःकरणों को शुद्ध बनाता है ।( सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः) = अन्त:करण की शुद्धि के परिणामरूप हमारी स्मृति ठीक बनी रहती है और हमें अपने जीवन का उद्देश्य भूलता नहीं। मधु का अभिप्राय ‘वाणी के माधुर्य' से भी है, हमारी जिह्वा से कभी कोई कटु शब्द नहीं निकलता।(‘जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम्') इस वेदवाक्य के अनुसार हमारा प्रत्येक शब्द स्नेह व माधुर्य से सना हुआ ही होता है । इस वाणी के माधुर्य के साथ-साथ सच्ची वृद्धि के साधनभूत पयस् [ओप्यायी वृद्धौ] ज्ञान का हम संचय करते हैं । यह ज्ञान हमारी इन्द्रियों को पवित्र बनाकर हमें मार्ग-भ्रष्ट नहीं होने देता । ('केतपूः केतं नः पुनातु') = ज्ञान से पवित्र करनेवाला प्रभु हमारे ज्ञान को और दीप्त करे, परन्तु साथ ही (वाचस्पतिः वाचं नः स्वदतु) = वाचस्पति प्रभु हमारी वाणी को स्वादवाला बना दे । यही तो मधु+पयस् का सेवन है । (देवम्) = यह दिव्य भोजन है मधु+पयस् देवताओं से सेवित हो 'देव' ही कहा जाने लगा | देवाय - यह दिव्य भोजन हमें उस महान् देव की प्राप्ति में सहायक होता है। (देवयुः) = यह भोजन हमें देवों के साथ [यु-मिश्रणे] मिलानेवाला है। इस भोजन के सेवन से हमारी दैवी सम्पत्ति का उचित विकास होगा ।

भावार्थ -

सात्त्विक भोजन – शहद, दूध आदि उत्तम पदार्थ हमें देव की प्राप्ति के योग्य बनाते हैं।

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