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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 674
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ए꣣ना꣡ विश्वा꣢꣯न्य꣣र्य꣢꣫ आ द्यु꣣म्ना꣢नि꣣ मा꣡नु꣢षाणाम् । सि꣡षा꣢सन्तो वनामहे ॥६७४॥

स्वर सहित पद पाठ

ए꣣ना꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯नि । अ꣡र्यः꣢ । आ । द्यु꣡म्ना꣡नि꣢ । मा꣡नु꣢꣯षाणाम् । सि꣡षा꣢꣯सन्तः । व꣣नामहे ॥६७४॥


स्वर रहित मन्त्र

एना विश्वान्यर्य आ द्युम्नानि मानुषाणाम् । सिषासन्तो वनामहे ॥६७४॥


स्वर रहित पद पाठ

एना । विश्वानि । अर्यः । आ । द्युम्नानि । मानुषाणाम् । सिषासन्तः । वनामहे ॥६७४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 674
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

हे (अर्य) = सब धनों के स्वामी प्रभो! हमें प्राप्त होनेवाले (मानुषाणाम्) = मनुष्य-सम्बन्धी (एना) = इन (विश्वानि) = सब (द्युम्नानि) = धनों का हम (आ-सिषान्त:) = चारों ओर विभाग करते हुए (वनामहे) = सेवन करें । =

मनुष्य इस बात को कभी न भूले कि सब धनों के वास्तविक 'अर्य' परमात्मा ही है। (अहं धनानि संजयामि शश्वतः) = प्रभु कहते हैं कि सनातन काल से मैं ही धनों का विजय करता हूँ । जिस दिन हम इस तत्त्व को समझ लेंगे, उस दिन हम धनों के स्वामी न रहकर निधि-प=Trustee हो जाएँगे और निधि के स्वामी के आदेश के अनुसार ही हम उस निधि का विनियोग करेंगे। तब हम अपने स्वास्थ्यरूप धन का विनियोग भी केवल अपने आनन्द के लिए न करके लोकहित के लिए करेंगे । हमारा ज्ञान भी लोकहित के लिए होगा ।

इस तत्त्व को समझनेवाला 'अमहीयु' अपने समाधि के आनन्द को भी अकेला भोगना उचित नहीं समझता, पार्थिव धन का तो उसे कभी मोह हो ही नहीं सकता ।

भावार्थ -

हम प्राप्त सम्पत्तियों का संविभाग-पूर्वक ही सेवन करें ।

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