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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 692
ऋषिः - गौरिवीतिः शाक्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती) स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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प꣡व꣢स्व꣣ म꣡धु꣢मत्तम꣣ इ꣡न्द्रा꣢य सोम क्रतु꣣वि꣡त्त꣢मो꣣ म꣡दः꣢ । म꣡हि꣢ द्यु꣣क्ष꣡त꣢मो꣣ म꣡दः꣢ ॥६९२॥

स्वर सहित पद पाठ

प꣡वस्व꣢꣯ । म꣡धु꣢꣯मत्तमः । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सो꣣म । क्रतुवि꣡त्त꣢मः । क्र꣣तु । वि꣡त्त꣢꣯मः । म꣡दः꣢꣯ । म꣡हि꣢꣯ । द्यु꣣क्ष꣡त꣢मः । द्यु꣣ । क्ष꣡त꣢꣯मः । म꣡दः꣢꣯ ॥६९२॥


स्वर रहित मन्त्र

पवस्व मधुमत्तम इन्द्राय सोम क्रतुवित्तमो मदः । महि द्युक्षतमो मदः ॥६९२॥


स्वर रहित पद पाठ

पवस्व । मधुमत्तमः । इन्द्राय । सोम । क्रतुवित्तमः । क्रतु । वित्तमः । मदः । महि । द्युक्षतमः । द्यु । क्षतमः । मदः ॥६९२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 692
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

प्रस्तुत दो मन्त्रों का ऋषि ‘गौरिवीति शाक्त्य' है । आचार्य दयानन्द इसका अर्थ करते हैं 'यो गौरीं वाचं व्येति', अर्थात् जो वाणी के विषय को व्याप्त करता है। बृहस्पति शब्द की मूल भावना [बृहत्या: वाचः पतिः] भी 'वाणी का पति' ही है । एवं, गौरिवीति और बृहस्पति शब्द एकार्थक ही हैं। ‘शाक्त्यः' की भावना है शक्ति का पुत्र, अर्थात् अत्यन्त शक्तिशाली । यही भावना ‘भरद्वाज: ' शब्द में निहित है—‘भरी है अपने अन्दर शक्ति जिसने ।' एवं, ‘गौरिवीति शाक्त्य' व 'बार्हस्पत्य भारद्वाज' में कोई अन्तर नहीं है ।

१. यह ऐसा इसलिए बन पाया है कि इसने सोम के रहस्य को समझकर उसका पान किया है। यह सोम से कहता है कि हे = वीर्यशक्ते ! तू (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (पवस्व) = पवित्रता करनेवाली हो । यह वीर्यरक्षा शरीर को नीरोग बनाती है, क्योंकि यह रोगकृमियों को विशेषरूप से कम्पित करके दूर भगा देती है । यह मन को निर्मल बनाती है और बुद्धि को उज्ज्वल। एवं, यह शरीर, मन व बुद्धि तीनों को ही पवित्र करती है। २. हे सोम! तू (मधुमत्तमः) = अत्यन्त माधुर्यवाला है, अर्थात् वीर्य पुरुष के जीवन को बड़ा मधुर बना देता है । यह किसी के साथ द्वेष तो करता ही नहीं, शक्तिसम्पन्न होने से यह सभी के हित में प्रवृत्त रहता है। इसमें आलस्य नहीं होता, क्रियाशीलता व अव्याकुलता के कारण इसके सभी कार्य मधुर बने रहते हैं । ३. यह सोम एक ऐसे मद को, हर्षातिरेक को प्राप्त करानेवाला होता है, जो (मदः) = मद (क्रतुवित्तमः) = उत्तम सङ्कल्पों को प्राप्त कराता है। सोमपान करनेवाले पुरुष में अशुभ सङ्कल्पों का जन्म नहीं होता, इसका मन शिवसङ्कल्पों का आकर बनता है [क्रतु- सङ्कल्प, विद्- प्राप्त करना, तम अतिशेयन] ४. यह सोमजनित मदः = -हर्ष व उत्साह का अतिरेक (महि) = महत्- अत्यधिक (द्युमत्तमः) = [द्यौः प्रकाशः क्षियति निवसति यस्मिन्] ज्ञान-प्रकाश के निवासवाला है। इस सोम से ज्ञान का प्रकाश उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है। 

भावार्थ -

सोमपान के द्वारा हम अपने जीवनों को पवित्र, मधुर, उत्तम सङ्कल्पोंवाला व उज्ज्वल ज्ञान के प्रकाशवाला बनाएँ ।

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