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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 694
ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
3
इ꣢न्द्र꣣म꣡च्छ꣢ सु꣣ता꣢ इ꣣मे꣡ वृष꣢꣯णं यन्तु꣣ ह꣡र꣢यः । श्रु꣣ष्टे꣢ जा꣣ता꣢स꣣ इ꣡न्द꣢वः स्व꣣र्वि꣡दः꣢ ॥६९४॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣡च्छ꣢꣯ । सु꣣ताः꣢ । इ꣣मे꣢ । वृ꣡ष꣢꣯णम् । य꣡न्तु । ह꣡र꣢꣯यः । श्रु꣣ष्टे꣢ । जा꣣ता꣡सः꣢ । इ꣡न्द꣢꣯वः । स्व꣣र्वि꣡दः꣢ । स्वः꣣ । वि꣡दः꣢꣯ ॥६९४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रमच्छ सुता इमे वृषणं यन्तु हरयः । श्रुष्टे जातास इन्दवः स्वर्विदः ॥६९४॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रम् । अच्छ । सुताः । इमे । वृषणम् । यन्तु । हरयः । श्रुष्टे । जातासः । इन्दवः । स्वर्विदः । स्वः । विदः ॥६९४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 694
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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विषय - अग्निः चाक्षुषः
पदार्थ -
इस तृच का ऋषि ‘अग्नि चाक्षुष' है । अग्नि के समान तेजस्वी होने से इसका नाम अग्नि हो गया है । स्थानान्तर ‘पावकवर्णः' यह विशेषण प्रभु-भक्त का आया है - वह अग्नि के समान वर्णवाला होता है। शरीर से तेजस्वी होता हुआ यह 'चाक्षुष' = उत्तम चक्षुओंवाला 'विचक्षण' =विद्वान् है इसका दृष्टिकोण ठीक होता है - प्रत्येक वस्तु को ठीक रूप में देखता है । इस प्रकार इस शब्द की भावना भी 'बार्हस्पत्य भारद्वाज' व 'गौरिवीति शाक्त्य' के समान ही है । ।
यह ‘अग्नि चाक्षुष’ कहता है कि (इमे सुताः) = ये उत्पन्न हुए-हुए सोम [वीर्यबिन्दु] (इन्द्रम् अच्छ) = मुझे प्रभु की ओर ले चलते हैं । वीर्यशक्ति का मुख्य उद्देश्य जीव को प्रभु की प्राप्ति कराना ही है। यही इस शक्ति के उत्तर-अयन [मार्ग] का अन्तिम लक्ष्य है । (हरयः) = दुःख को हरनेवाले ये सोम (वृषणम्) = शक्तिशाली पुरुष को (यन्तु) = प्राप्त हों । ये सोम प्रभु को तो प्राप्त कराते ही हैं, साथ ही इस शरीर में ये हमारे दुःखों को दूर करनेवाले होते हैं। रोगकृमियों के संहार से ये शरीर को नीरोग व सबल बनाते हैं। शक्तिसम्पन्न मनुष्य ईर्ष्या द्वेष की भावनाओं से ऊपर उठा हुआ होता है । उलझनों से युक्त [Confused] नहीं होता । ये सोम तो (श्रुष्टे) = सुख [ Happiness, prosperity] के निमित्त ही (जातासः) = पैदा हुए हैं। प्रभु ने इनका निर्माण मानव की सब प्रकार की समृद्धि के लिए ही किया है। इनका नाम ही इन्दवः ='परमैश्वर्य को प्राप्त करानेवाले' है । सुख के निमित्त उत्पन्न हुए-हुए ये सोम के (इन्दवः) = [बिन्दवः Drops, द्रप्स:] बिन्दु सचमुच (स्वः विदः) = स्वर्ग-सुख का लाभ करानेवाले हैं ।
भावार्थ -
ये सोम हमारे दुःखों को दूर करके हमें सुखों व प्रभु को प्राप्त करानेवाले हों ।
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