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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 703
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
य꣣ज्ञा꣡य꣢ज्ञा वो अ꣣ग्न꣡ये꣢ गि꣣रा꣡गि꣢रा च꣣ द꣡क्ष꣢से । प्र꣡प्र꣢ व꣣य꣢म꣣मृ꣡तं꣢ जा꣣त꣡वे꣢दसं प्रि꣣यं꣢ मि꣣त्रं꣡ न श꣢꣯ꣳसिषम् ॥७०३॥
स्वर सहित पद पाठय꣣ज्ञा꣡य꣢ज्ञा । य꣣ज्ञा꣢ । य꣣ज्ञा । वः । अग्न꣡ये꣢ । गि꣣रा꣡गि꣢रा । गि꣣रा꣢ । गि꣣रा । च । द꣡क्ष꣢꣯से । प्र꣡प्र꣢꣯ । प्र । प्र꣣ । व꣣य꣢म् । अ꣣मृ꣡त꣢म् । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯म् । जा꣣त꣡वे꣢दसम् । जा꣣त꣢ । वे꣣दसम् । प्रिय꣢म् । मि꣣त्र꣢म् । मि꣣ । त्र꣢म् । न । श꣣ꣳसिषम् ॥७०३॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञायज्ञा वो अग्नये गिरागिरा च दक्षसे । प्रप्र वयममृतं जातवेदसं प्रियं मित्रं न शꣳसिषम् ॥७०३॥
स्वर रहित पद पाठ
यज्ञायज्ञा । यज्ञा । यज्ञा । वः । अग्नये । गिरागिरा । गिरा । गिरा । च । दक्षसे । प्रप्र । प्र । प्र । वयम् । अमृतम् । अ । मृतम् । जातवेदसम् । जात । वेदसम् । प्रियम् । मित्रम् । मि । त्रम् । न । शꣳसिषम् ॥७०३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 703
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - शंयुः बार्हस्पत्यः
पदार्थ -
इस द्व्यृच का ऋषि ‘शंयुः '=शान्ति चाहनेवाला अथवा शान्ति को अपने साथ युक्त करनेवाला है। यह बार्हस्पत्य-बृहस्पति का सन्तान, अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञानी होने से ही ‘शान्तिप्रिय' बना है। यह अपने जीवन में दो ही बातों को स्थान देता है १. यज्ञ और २. ज्ञान । अपने मित्रों से यह कहता है कि मैं तुम (वः) = सबको (यज्ञायज्ञा) = विविध (यज्ञों) = [उत्तम कर्मों] के द्वारा (अग्नये) = अपने को आगे लेचलने के लिए प्रेरित करता हूँ (च) = तथा (गिरा-गिरा) = एक-एक वेदवाणी के द्वारा (दक्षसे) = योग्य बनने [To be able] के लिए कहता हूँ । यदि मनुष्य अपने जीवन को यज्ञों व ज्ञान प्राप्ति में लगाये रक्खेगा तो उसे अवश्य ही शान्ति प्राप्ति होगी। यह शंयु अपने मित्रों को यज्ञ व ज्ञान में लगे रहने के लिए कहता है कि इस प्रकार (वयम्) = हम सब (अमृतम्) = अमर, मृत्यु से अतीत तथा (जातवेदसम्सर्वज्ञ) = [जातं जातं वेत्ति] उस प्रभु की (प्रियं मित्रं न) = प्रिय मित्र के समान प्(रशंसिषम्) = खूब ही स्तुति करते हैं। यज्ञों के द्वारा हम भी रोगों से बचकर 'अमृत' होते हैं और वेदवाणी के अध्ययन से सर्वज्ञकल्प बनने के लिए यत्नशील होते हैं ।
इस प्रकार प्रभु-जैसा बनना ही प्रभु का सच्चा उपासक होना है। ज्ञान+कर्म= इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं कि 'यज्ञ [उत्तम कर्म] +ज्ञान' ही उपासना है। “ उपासना" यह समीकरण सत्य है । जब प्रभु में ज्ञान और क्रिया स्वाभाविक हैं तो हमारा भी 'ज्ञानपूर्वक कर्म करना' स्वभाव ही बन जाना चाहिए ।
भावार्थ -
यज्ञों व वेदवाणियों के द्वारा हम अमरता व सर्वज्ञकल्पता का लाभ करें ।
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