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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 72
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिपाद विराड् गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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अ꣣ग्निं꣢꣫ नरो꣣ दी꣡धि꣢तिभिर꣣र꣢ण्यो꣣र्ह꣡स्त꣢च्युतं जनयत प्रश꣣स्त꣢म् । दूरे꣣दृ꣡शं꣢ गृ꣣ह꣡प꣢तिमथ꣣व्यु꣢म् ॥७२॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣ग्नि꣢म् । न꣡रः꣢꣯ । दी꣡धि꣢꣯तिभिः । अ꣣र꣡ण्योः꣢ । ह꣡स्त꣢꣯च्युतम् । ह꣡स्त꣢꣯ । च्यु꣣तम् । जनयत । प्रशस्त꣢म् । प्र꣣ । श꣢स्तम् । दू꣣रेदृ꣡श꣢म् । दू꣣रे । दृ꣡ष꣢꣯म् । गृ꣣ह꣡ प꣢तिम् । गृ꣣ह꣢ । प꣣तिम् । अथव्यु꣢म् । अ꣣ । थव्यु꣢म् ॥७२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं नरो दीधितिभिररण्योर्हस्तच्युतं जनयत प्रशस्तम् । दूरेदृशं गृहपतिमथव्युम् ॥७२॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निम् । नरः । दीधितिभिः । अरण्योः । हस्तच्युतम् । हस्त । च्युतम् । जनयत । प्रशस्तम् । प्र । शस्तम् । दूरेदृशम् । दूरे । दृषम् । गृह पतिम् । गृह । पतिम् । अथव्युम् । अ । थव्युम् ॥७२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 72
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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विषय - अरणियों से अग्नि का दीपन
पदार्थ -
प्रभु कहते हैं कि हे (नरः) = मनुष्यो! तुम (अरण्यो:) ज्ञान और भक्ति की अरणियों की (दीधितिभिः) = दीप्तियों से (अग्निम्) = प्रगतिशील जीव का (जनयत) = विकास करो, अर्थात् ज्ञान और भक्ति का उचित समन्वय होने पर ही मनुष्य प्रगति कर सकता है। केवल ज्ञान या केवल भक्ति मनुष्य के उत्थान के लिए उसी प्रकार असमर्थ है, जैसे केवल दायाँ या केवल बायाँ पंख पक्षी के उत्पतन के लिए। हृदय व मस्तिष्क दोनों का मेल ही मनुष्य को ऊँचा उठा सकता है।
मनुष्य ज्यों-ज्यों ऊँचा उठता जाता है त्यों-त्यों वह (हस्तच्युतम्) = धन को हाथ से त्यागनेवाला बनता जाता है। धन उत्थान में विघ्न है, यात्रा में बोझ है। धन को त्यागनेवाला होकर ही यह प्(रशस्तम्)=उत्तम जीवनवाला होता है। इसके कार्य लोभशून्य होने से पवित्र होते हैं। यह इहलौकिक सुखों को ही प्रधानता न देने के कारण (दूरे दृशम्) = दूरदृष्टि होता है। केवल शारीरिक सुख इसका ध्येय नहीं बनता, आत्मिक उत्थान को यह अधिक महत्त्व देता है। लोगों को भी सत्योपदेश द्वारा वैर-विरोध से दूर कर यह (गृहपतिम्) = उनके घरों का रक्षक होता है और इस सत्योपदेश के कार्य में (अथव्युम्) = सतत गमनशील होता है। इस प्रकार लोभादि को पूर्णरूप से वश में करके निरन्तर आगे बढ़नेवाला यह अग्नि इस मन्त्र का ऋषि ‘वसिष्ठ' कहलाता है।
भावार्थ -
उन्नति के लिए ज्ञान और भक्ति का समन्वय आवश्यक है।
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