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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 724
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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त्रि꣡क꣢द्रुकेषु꣣ चे꣡त꣢नं दे꣣वा꣡सो꣢ य꣣ज्ञ꣡म꣢त्नत । त꣡मि꣢꣯द्वर्धन्तु नो꣣ गि꣡रः꣢ ॥७२४॥

स्वर सहित पद पाठ

त्रि꣡क꣢꣯द्रुकेषु । त्रि । क꣣द्रुकेषु । चे꣡तन꣢꣯म् । दे꣣वा꣡सः꣢ । य꣣ज्ञ꣢म् । अ꣣त्नत । त꣣म् । इत् । व꣣र्द्धन्तु । नः । गि꣡रः꣢꣯ ॥७२४॥


स्वर रहित मन्त्र

त्रिकद्रुकेषु चेतनं देवासो यज्ञमत्नत । तमिद्वर्धन्तु नो गिरः ॥७२४॥


स्वर रहित पद पाठ

त्रिकद्रुकेषु । त्रि । कद्रुकेषु । चेतनम् । देवासः । यज्ञम् । अत्नत । तम् । इत् । वर्द्धन्तु । नः । गिरः ॥७२४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 724
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

(त्रिकद्रुकेषु) = [कद्=आह्वान] तीनों आह्वानकालों में (देवासः) = विद्वान् लोग (चेतनं यज्ञम्) = उस चिद्रूप सर्वत्र संगत [यज्=संगतीकरण] विष्णु [सर्वव्यापक] को (अत्नत) = विस्तृत करते हैं, अर्थात् उस प्रभु की पूजा करते हैं । (नः गिरः) = हमारी वाणियाँ भी (तम् इत्) = उसको ही (वर्धन्तु) = बढ़ाएँ – सदा 

‘त्रिकद्रुक' शब्द तीन आह्वानकालों का संकेत करता है । प्रातः, मध्याह्न व सायं के सवनों के समय प्रभु का ही हम कीर्तन करें। जीवन के तीनों कालों में, प्रथम २४, मध्यम ४४ व अन्तिम ४८ वर्षों में सदा हमारा यह स्तुति-यज्ञ चलता चले।

‘चेतनं यज्ञम्' यह प्रयोग विशेष महत्त्व रखता है। अग्निहोत्र आदि यज्ञ उत्तम हैं, मनुष्य के लिए वे पावन हैं—स्वर्ग के साधक हैं, परन्तु कुछ भी हो ये यज्ञरूप प्लव-नौका अदृढ़ ही हैं । ये हमें जन्म-मरण के चक्र से ऊपर नहीं उठा सकते । मनुष्य को अन्त में उपासनारूप चेतन-यज्ञ ही करना चाहिए। उस उपासना यज्ञ की तुलना में ये सब द्रव्य साध्य यज्ञ हीन हैं— मृत के समान हैं । हमारी वाणियाँ सदा प्रभु का ही वर्धन करनेवाली हों – उसी की स्तुति करनेवाली हों । लोक - में हम बड़ों का आदर करें – स्तुति तो हमें एकमात्र प्रभु की ही करनी । व्यक्ति की उपासना का ही यह परिणाम है कि मत-मतान्तर उत्पन्न हो गये – परस्पर विद्वेष बढ़ गया । एक प्रभु की उपासना होने पर ही यह भेदभाव समाप्त होगा ।

भावार्थ -

श्रुतकक्ष सदा चेतन यज्ञ का विस्तार करता है। उसका जीवन उपासनामय होता है ।

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