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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 766
ऋषिः - त्रित आप्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
सु꣣ता꣡ इन्द्रा꣢꣯य वा꣣य꣢वे꣣ व꣡रु꣢णाय म꣣रु꣡द्भ्यः꣣ । सो꣡मा꣢ अर्षन्तु꣣ वि꣡ष्ण꣢वे ॥७६६॥
स्वर सहित पद पाठसु꣣ताः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । वा꣣य꣡वे꣢ । व꣡रु꣢꣯णाय । म꣣रु꣡द्भ्यः꣢ । सो꣡माः꣢꣯ । अ꣣र्षन्तु । वि꣡ष्ण꣢꣯वे ॥७६६॥
स्वर रहित मन्त्र
सुता इन्द्राय वायवे वरुणाय मरुद्भ्यः । सोमा अर्षन्तु विष्णवे ॥७६६॥
स्वर रहित पद पाठ
सुताः । इन्द्राय । वायवे । वरुणाय । मरुद्भ्यः । सोमाः । अर्षन्तु । विष्णवे ॥७६६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 766
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - ब्रह्मचर्य के पाँच साधन
पदार्थ -
जिस ब्रह्मचर्य से ‘देव' बने, उस ब्रह्मचर्य के पाँच साधन हैं। इस मन्त्र में उनका वर्णन इस प्रकार है–(सुताः सोमा:)-ये उत्पन्न हुए-हुए सोम [शक्तिकण] (अर्षन्तु) = प्राप्त हों, किसके लिए१. (इन्द्राय) = इन्द्र के लिए - इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव के लिए । शक्ति की रक्षा के लिए हम इन्द्रियों—विशेषतः स्वादेन्द्रिय – जीभ को वश में करें । इसको वश में किये बिना ब्रह्मचर्य-पालन सम्भव नहीं । २. (वायवे) = वायु के लिए - सदा गतिशील के लिए। जो ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता है, उसे आलसी कभी नहीं होना । आलस्य वासनाओं को आमन्त्रित करता है और हम शक्ति की रक्षा नहीं कर पाते । ३. (वरुणाय) = वरुण के लिए - पाशी के लिए। जो अपने को विविध व्रतों के बन्धनों में बाँधता है, वही ब्रह्मचारी हो पाता है। छोटे-छोटे व्रतों का पालन इस महान् व्रत के पालन में सहायक होता है । वरुण का अर्थ श्रेष्ठ भी है- श्रेष्ठ वह है, जो ईर्ष्या - द्वेष से पृथक् है । ईर्ष्या-द्वेष आदि की भावनाएँ तुच्छ व क्षुद्र हैं, ये ब्रह्म - महान् की ओर चलने की ठीक विरोधी हैं। ४. (मरुद्भ्यः) = प्राण-संयम करनेवालों के लिए । मरुत् ४९ प्रकार के प्राण हैं, इनकी साधना करनेवाला ही ब्रह्मचारी होता है। प्राणायाम और ब्रह्मचर्य में साध्य-साधन व कार्य-कारणभाव निश्चित ही है। ५. विष्णवे = व्यापक मनोवृत्तिवाले के लिए। ब्रह्मचर्य के पालन में मानस उदारता व विशालता भी बड़ा महत्त्व रखती है। मन का संकोच ही प्रेम को संकुचित करके कामवासना के रूप में परिवर्तित कर देता है, यह वासना ब्रह्मचर्य को नष्ट करती है ।
भावार्थ -
ब्रह्मचर्य के लिए पाँच बातें आवश्यक हैं – १. जितेन्द्रियता, २. क्रियाशीलता, ३. व्रतपतित्व, ४. प्राणायाम तथा ५. व्यापक मनोवृत्ति ।