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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 785
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
य꣢द꣣द्भिः꣡ प꣢रिषि꣣च्य꣡से꣢ मर्मृ꣣ज्य꣡मा꣢न आ꣣यु꣡भिः꣢ । द्रो꣡णे꣢ स꣣ध꣡स्थ꣢मश्नुषे ॥७८५॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ꣡द्भिः꣢ । प꣣रिषिच्य꣡से꣢ । प꣣रि । सिच्य꣡से꣢ । म꣣र्मृज्य꣡मा꣢नः । आ꣣यु꣡भिः꣢ । द्रो꣡णे꣢꣯ । स꣣ध꣡स्थ꣢म् । स꣣ध꣢ । स्थ꣣म् । अश्नुषे ॥७८५॥
स्वर रहित मन्त्र
यदद्भिः परिषिच्यसे मर्मृज्यमान आयुभिः । द्रोणे सधस्थमश्नुषे ॥७८५॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । अद्भिः । परिषिच्यसे । परि । सिच्यसे । मर्मृज्यमानः । आयुभिः । द्रोणे । सधस्थम् । सध । स्थम् । अश्नुषे ॥७८५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 785
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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विषय - प्रभु के साथ
पदार्थ -
शरीर में उत्पन्न होनेवाली सोम-शक्ति मानव जीवन के उत्थान का मूल है। शरीर में सुरक्षित होने पर यह अन्त में मनुष्य का ‘परमात्मतत्त्व' से मेल कराने का साधन बनती है। स्वास्थ्य, नैर्मल्य व ज्ञान की दीप्ति का कारण बनकर यह उसे प्रभु का दर्शन कराती है। प्रस्तुत मन्त्र में उसी का वर्णन करते हुए कहते हैं कि (यत्) = जो (अद्भिः) = कर्मों के द्वारा (परिषिच्यसे) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में सिक्त होता है और (आयुभिः) = [इण्-गतौ] गतिशील पुरुषों के द्वारा (मर्मृज्यमानः) = निरन्तर शुद्ध किया जाता है, उस समय (द्रोणे) = [द्रु- गतौ] गति के आधार बने इस शरीर में (सधस्थम्) = आत्मा व परमात्मा की सहस्थिति को (अश्नुषे) = प्राप्त करता है ।
जब मनुष्य कर्मों में लगा रहता है तब इस सोम का व्यय अङ्ग-प्रत्यङ्ग के निर्माण में होता है । ‘सोम की खपत शरीर में ही हो जाए' इसके लिए आवश्यक है कि हम सदा कर्मों में लगे रहें । अकर्मण्य शरीर में ' सोमपान' की शक्ति नहीं होती । गतिशील बने रहने से ही सोम शुद्ध बना रहता है, उसमें वासना-जन्य उबाल उत्पन्न नहीं होता । द्रोण में [गतिशील में] ही यह सोम अन्ततः आत्मा व परमात्मा की सहस्थिति को उत्पन्न करता है। एवं, क्रियाशीलता से सोम शरीर में ही सिद्ध होता है और शुद्ध बना रहता है तथा यह शरीर में व्याप्त शुद्ध सोम हमें प्रभु से मिला है। ।
सोम-रक्षा से अपने जीवन का ठीक परिपाक करनेवाला प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘भृगुः' है, उत्तम जीवनवाला होने से यह ‘वारुणि' है। पूर्ण स्वस्थ शरीरवाला यह 'जमदग्नि' है और परिपक्व ज्ञानवाला ‘भार्गव' है ।
भावार्थ -
कर्मों के द्वारा हम सोम की रक्षा करें । सुरक्षित सोम हमें प्रभु की सहस्थिति को प्राप्त कराएगा |
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