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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 795
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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व꣡रु꣢णः प्रावि꣣ता꣡ भु꣢वन्मि꣣त्रो꣡ विश्वा꣢꣯भिरू꣣ति꣡भिः꣢ । क꣡र꣢तां नः सु꣣रा꣡ध꣢सः ॥७९५॥

स्वर सहित पद पाठ

व꣡रु꣢꣯णः । प्रा꣣विता꣢ । प्र꣣ । अविता꣢ । भु꣣वत् । मित्रः꣢ । मि꣢ । त्रः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯भिः । ऊ꣣ति꣡भिः꣢ । क꣡र꣢꣯ताम् । नः꣣ । सु꣡राध꣢सः । सु꣣ । रा꣡ध꣢꣯सः ॥७९५॥


स्वर रहित मन्त्र

वरुणः प्राविता भुवन्मित्रो विश्वाभिरूतिभिः । करतां नः सुराधसः ॥७९५॥


स्वर रहित पद पाठ

वरुणः । प्राविता । प्र । अविता । भुवत् । मित्रः । मि । त्रः । विश्वाभिः । ऊतिभिः । करताम् । नः । सुराधसः । सु । राधसः ॥७९५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 795
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

प्राणापान आसुर वृत्तियों के आक्रमण से रक्षा करनेवाले हैं। इन्हीं की साधना से इन्द्रियों के दोष नष्ट होते हैं, अतः मन्त्र में प्रार्थना करते हैं २ (वरुणः मित्र:) = वरुण और मित्र, अर्थात् अपान और प्राण (विश्वाभिः ऊतिभिः) = सब रक्षणों के द्वारा हमारे (प्राविता) = रक्षक (भुवत्) = हों । प्राण शक्ति भरके दोषों को दग्ध करता है तो अपान – वरुण उस मल को दूर ले-जाता है । एक जलाता है, दूसरा दूर ले जाता है, इस प्रकार हमारे जीवन पवित्र और पवित्रतर होते चलते हैं । इस सारी प्रक्रिया के द्वारा ये प्राणापान (न:) = हमें (सुराधसः) = उत्तम धनोंवाला (करताम्) = करें । प्राणापान की आराधना से हमारे शरीर सशक्त होकर रोगों के शिकार न हों, हमारे हाथ यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे रहें, हमारा मन सदा सत्य से पवित्र बना रहे और हमारी बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होकर ज्योतिर्मय हो ।

भावार्थ -

प्राणापान हमारी प्रत्येक इन्द्रिय को आसुर आक्रमणों से बचाएँ।

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