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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 81
ऋषिः - गय आत्रेय
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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अ꣢ग्न꣣ ओ꣡जि꣢ष्ठ꣣मा꣡ भ꣢र द्यु꣣म्न꣢म꣣स्म꣡भ्य꣢मध्रिगो । प्र꣡ नो꣢ रा꣣ये꣡ पनी꣢꣯यसे꣣ र꣢त्सि꣣ वा꣡जा꣢य꣣ प꣡न्था꣢म् ॥८१॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग्ने꣢꣯ । ओ꣡जि꣢꣯ष्ठम् । आ । भ꣣र । द्युम्न꣢म् । अ꣣स्म꣡भ्य꣢म् । अ꣣ध्रिगो । अध्रि । गो । प्र꣢ । नः꣣ । राये꣢ । प꣡नी꣢꣯यसे । र꣡त्सि꣢꣯ । वा꣡जा꣢꣯य । प꣡न्था꣢꣯म् ॥८१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्न ओजिष्ठमा भर द्युम्नमस्मभ्यमध्रिगो । प्र नो राये पनीयसे रत्सि वाजाय पन्थाम् ॥८१॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने । ओजिष्ठम् । आ । भर । द्युम्नम् । अस्मभ्यम् । अध्रिगो । अध्रि । गो । प्र । नः । राये । पनीयसे । रत्सि । वाजाय । पन्थाम् ॥८१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 81
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
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विषय - महान् त्याग की तैयारी
पदार्थ -
इस मन्त्र में प्रभु को (अग्ने) = आगे ले-चलनेवाले तथा (अध्रिगो) = अधृतगमन=अप्रतिहत गतिवाले इन दो शब्दों से सम्बोधित किया गया है। ये सम्बोधन उपासक को यही प्रेरणा दे रहे हैं कि तुझे आगे बढ़ना है, थककर इस अग्रगति में रुक नहीं जाना है। यह जीवनयात्रा ही तो है, और इस यात्रा में रुक गये तो यह अधूरी ही रह जाएगी।
इस यात्रा के प्रथम प्रयाण में हम प्रभु से याचना करते हैं कि (अस्मभ्यम्) = हमें (द्युम्नम्) = प्रकाशशील ज्ञानरूप धन (आभर) = प्राप्त कराइए, परन्तु वह ज्ञानरूप धन (ओजिष्ठम्) = हमें ओजस्वी व शक्तिशाली बनानेवाला हो । ज्ञान प्राप्त करके; हम सुकोमल शरीर [delicate ] न बन जाएँ, क्योंकि जीवन के अगले प्रयाण में यह शारीरिक श्रम की वृत्ति ही हमें अशुभ मार्गों से धन कमाने से बचाएगी।
दूसरे प्रयाण के लिए प्रार्थना ही यह है कि (नः) = हमें (पनीयसे) = (पन=स्तुतौ) (राये) = धन के लिए ले - चलिए, अर्थात् हम गृहस्थ बनकर प्रशंसा के योग्य मार्गों से धन कमाएँ। गृहस्थ में धन की आवश्यकता तो है ही - गृहस्थ को अपना ही नहीं अन्य तीनों आश्रमियों का भी पालन करना है। इस धन को वह उत्तम मार्ग से संचित करे। सबसे उत्तम मार्ग ‘श्रम’ ही है। (“अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व”)='पासों से जुआ मत खेल, खेती ही कर' यह वेदवाक्य श्रमसाध्य धन की उत्तमता का संकेत कर रहा है। हमारा ज्ञान ओजिष्ठ होगा तो हम सदा श्रमशील बने रहेंगे और तब हमारी टेढ़े-मेढ़े साधनों से धन कमाने की वृत्ति न होगी।
तीसरे प्रयाण में हम प्रभु से आराधना करते हैं कि (वाजाय) = [ वाज=a sacrifice] त्याग के लिए (पन्थाम्) = मार्ग को (प्र- रत्सि) = विशेषरूप से तैयार कर दीजिए [रद्-to chalk out]। गृहस्थ गृह को त्यागकर वनस्थ होता है । यह वानप्रस्थाश्रम त्याग का आश्रम है और इसके बाद संन्यास कुटिया व आश्रमादि को छोड़कर सर्वत्र विचरते हुए लोकहित में लगे रहने से 'महान् त्याग' का आश्रम है। इसी के लिए तो हमने इस रूप में तैयारी की थी कि शक्तिशाली ज्ञान प्राप्त किया और सदा स्तुत्य धन को अपनाकर धन के प्रति अपनी आसक्ति
को बढ़ने नहीं दिया। आसक्ति तो हमें त्याग और महान् त्याग के अयोग्य बना देती ।
‘ओजिष्ठ द्युम्न' नींव है, 'स्तुत्य धन' उसपर खड़ी दीवारें हैं और त्याग व महान् त्याग इस ‘मानव भवन' की छत हैं। प्रभुकृपा से हम इस सुन्दर भवन का निर्माण करनेवाले इस मन्त्र के ऋषि ‘गय' = उत्तम गृहवाले बनें। [गयम् अस्यास्ति इति गयः]
भावार्थ -
अपनी जीवन यात्रा के चार पड़ावों में हमें शक्तिशाली ज्ञानवाला, स्तुत्य धन कमानेवाला, त्यागी व महान् त्यागी बनना है।
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