Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 826
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
मो꣢꣫ षु ब्र꣣ह्मे꣡व꣢ तदिन्द्र꣣यु꣡र्भुवो꣢꣯ वाजानां पते । म꣡त्स्वा꣢ सु꣣त꣢स्य꣣ गो꣡म꣢तः ॥८२६॥
स्वर सहित पद पाठमा । उ꣣ । सु꣢ । ब्र꣣ह्मा꣢ । इ꣣व । तन्द्रयुः꣢ । भु꣡वः꣢꣯ । वा꣣जानाम् । पते । म꣡त्स्व꣢꣯ । सु꣣त꣡स्य꣢ । गो꣡म꣢꣯तः ॥८२६॥
स्वर रहित मन्त्र
मो षु ब्रह्मेव तदिन्द्रयुर्भुवो वाजानां पते । मत्स्वा सुतस्य गोमतः ॥८२६॥
स्वर रहित पद पाठ
मा । उ । सु । ब्रह्मा । इव । तन्द्रयुः । भुवः । वाजानाम् । पते । मत्स्व । सुतस्य । गोमतः ॥८२६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 826
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
Acknowledgment
विषय - ज्ञान-शक्ति-यज्ञ
पदार्थ -
प्रभु सुकक्ष से कहते हैं कि -
१. (सुब्रह्मा इव) = उत्तम चतुर्वेदवेत्ता के समान ज्ञानी बनकर तू (मा उ) = मत ही (तन्द्रयुः) = आलसी (भुवः) = होना । ज्ञान-प्राप्ति में कभी आलस्य नहीं करना । (चतुर्वेदवेत्ता) = सा बनकर भी ज्ञान प्राप्ति में लगे ही रहना । ('अनन्तपारं किल शब्दशास्त्रम्') = शब्दशास्त्र अनन्तपार है। ज्ञान का अन्त समझकर तुझे आलस्य न घेर ले । तू यह न समझ बैठे कि जो कुछ ज्ञातव्य था वह मैंने जान ही लिया है, अब आगे पढ़कर क्या करना ?
२. (वाजानां पते) = वाजों के पति बननेवाले सुकक्ष वाज-प्राप्ति में भी तूने (तन्द्रयुः) = आलसी (मा भुवः) = नहीं होना । ज्ञान के साथ शक्तिसंचय को भी तूने भूल नहीं जाना ।
है ३. (गोमतः) = प्रशस्त इन्द्रियों व वेदवाणियोंवाले (सुतस्य) = यज्ञ का तू (मत्स्व) = आनन्द ले, अर्थात् तुझे यज्ञात्मक कर्मों में आनन्द का अनुभव हो । तू इनको अपनी इन्द्रियों को प्रशस्त करनेवाला समझ । इनके द्वारा तेरा वेदवाणियों से सम्पर्क भी हो जाता है और तू विषयों में फँसने से बच जाता ।
भावार्थ -
हम ज्ञान प्राप्ति में कभी आलस्य न करें – शक्ति सञ्चय में सदा अतृप्त रहें – यज्ञों में मस्त रहें ।
इस भाष्य को एडिट करें