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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 868
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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न꣡ दु꣢ष्टु꣣ति꣡र्द्र꣢विणो꣣दे꣡षु꣢ शस्यते꣣ न꣡ स्रेध꣢꣯न्तꣳ र꣣यि꣡र्न꣢शत् । सु꣣श꣢क्ति꣣रि꣡न्म꣢घव꣣न् तु꣢भ्यं꣣ मा꣡व꣢ते दे꣣ष्णं꣡ यत्पार्ये꣢꣯ दि꣣वि꣢ ॥८६८॥

स्वर सहित पद पाठ

न꣢ । दु꣣ष्टुतिः꣢ । दुः꣣ । स्तुतिः꣢ । द्र꣣विणोदे꣡षु꣢ । द्र꣣विणः । दे꣡षु꣢꣯ । श꣣स्यते । न꣢ । स्रे꣡धन्त꣢꣯म् । र꣣यिः꣢ । न꣣शत् । सु꣣श꣡क्तिः꣢ । सु꣣ । श꣡क्तिः꣢꣯ । इत् । म꣣घवन् । तु꣡भ्य꣢꣯म् । मा꣡व꣢꣯ते । दे꣡ष्ण꣢म् । यत् । पा꣡र्ये꣢꣯ । दि꣣वि꣢ ॥८६८॥


स्वर रहित मन्त्र

न दुष्टुतिर्द्रविणोदेषु शस्यते न स्रेधन्तꣳ रयिर्नशत् । सुशक्तिरिन्मघवन् तुभ्यं मावते देष्णं यत्पार्ये दिवि ॥८६८॥


स्वर रहित पद पाठ

न । दुष्टुतिः । दुः । स्तुतिः । द्रविणोदेषु । द्रविणः । देषु । शस्यते । न । स्रेधन्तम् । रयिः । नशत् । सुशक्तिः । सु । शक्तिः । इत् । मघवन् । तुभ्यम् । मावते । देष्णम् । यत् । पार्ये । दिवि ॥८६८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 868
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

प्रभु कहते हैं हे जीव ! यदि तुझे सचमुच प्राणापानों की साधना करते हुए उत्तम निवासवाला जीवन बनाना है, तो तू इस धन से प्रतारित [ठगा] मत हो जाना । यह तुझे धन्य तो बनाएगा, परन्तु कब ? जब तू इसका दान करनेवाला बनेगा । इससे संसार में भी तुझे यश मिलेगा और तू उस ज्ञान में स्थित होगा जो तुझे भवसागर से पार करनेवाला होगा । देख

(द्रविणोदेषु) = इस द्रविण [धन] को देनेवालों की (दुष्टुतिः) = निन्दा (न शस्यते) = नहीं कही जाती । यह द्रविण तो द्रविण-भाग जानेवाला [दु-गतौ] ही है। इसे लोहे की पिटारियों में बन्द करने पर भी स्थिर होकर तो रहना ही नहीं । (इसे तेरा साथी नहीं बनना )। न देनेवाले कृपण की निन्दा होती है। उसके लिए कंजूस मक्खीचूस आदि शब्दों का प्रयोग होता है, इसके विपरीत दान देनेवाले की कभी निन्दा नहीं होती, उसकी सदा प्रशंसा-ही- प्रशंसा होती है । २. जो दान नहीं देता और अपने पास ही इस धन को रोकने का प्रयत्न करता है, वह वास्तव में औरों की हिंसा करता है। इस (स्त्रेधन्तम्) = दूसरों की हिंसा करनेवाले को (रयि:) = धन (न) = नहीं (नशत्) = प्राप्त होता है। जब मनुष्य औरों को न देकर स्वयं ही मौज मारने लगता है तब प्रभु इसे धन नहीं देंगे । औरों की हिंसा करनेवाले को धन नहीं मिलता। ३. प्रभु देने के लिए प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि हे (मघवन्) = धनवाले ! (मा-वते तुभ्यम्) = धनवाले तेरे लिए (इत्) = निश्चय से यह (देष्णम्) = दान (सुशक्तिः) = उत्तम शक्ति देनेवाला होगा। रखा हुआ धन मनुष्य को निधन [मृत्यु] की ओर ले जाता है । दिया हुआ धन ही मनुष्य की शक्ति व जीवन का कारण बनता है । इस प्रकार हमारा इहलौकिक जीवन तो 'स्वस्थ, सबल व सुन्दर ' बनता ही है, परन्तु साथ ही ४. (यत् देष्णम्) = जो यह दान है, वह तुझे (दिवि) = उस ज्ञान के प्रकाश में स्थापित करता है जोकि (पार्ये) = तुझे भवसागर से पार लगाने का उत्तम साधन है। दान मनुष्य के बन्धनों का खण्डन [दाप् लवने] करता है और उसे सचमुच संसार से पार होने के क्षम बनाता है।

भावार्थ -

दान से १. प्रशंसा प्राप्त होती है, २. न देनेवाले को धन नहीं मिलता, ३. दान मनुष्य की शक्ति को बढ़ाता है और यह ४. मनुष्य को वह ज्ञान प्राप्त कराता है, जो उसे भवसागर से पार करता है ।

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