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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 882
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
3
त꣢द꣢द्या꣡ चि꣢त्त उ꣣क्थि꣡नोऽनु꣢꣯ ष्टुवन्ति पू꣣र्व꣡था꣢ । वृ꣡ष꣢पत्नी꣣रपो꣡ ज꣢या दि꣣वे꣡दि꣢वे ॥८८२॥
स्वर सहित पद पाठत꣢त् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । चि꣣त् । ते । उक्थि꣡नः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । स्तु꣡वन्ति । पूर्व꣡था꣢ । वृ꣡ष꣢꣯पत्नीः । वृ꣡ष꣢꣯ । प꣣त्नीः । अपः꣢ । ज꣢य । दिवे꣡दि꣢वे । दि꣣वे꣢ । दि꣣वे ॥८८२॥
स्वर रहित मन्त्र
तदद्या चित्त उक्थिनोऽनु ष्टुवन्ति पूर्वथा । वृषपत्नीरपो जया दिवेदिवे ॥८८२॥
स्वर रहित पद पाठ
तत् । अद्य । अ । द्य । चित् । ते । उक्थिनः । अनु । स्तुवन्ति । पूर्वथा । वृषपत्नीः । वृष । पत्नीः । अपः । जय । दिवेदिवे । दिवे । दिवे ॥८८२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 882
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - धर्मानुकूल कर्म
पदार्थ -
पूर्व मन्त्र में ‘येन’ के साथ प्रस्तुत मन्त्र के 'तत्' का सम्बन्ध है । येन= क्योंकि आप आयु व मनु को प्रकाश, आह्लाद व दीप्ति [ज्योतींषि, मन्दान:, विराजसि] प्राप्त कराते हैं, (तत्) = अत: (ते) = आपके इस कार्य का (उक्थिन:) = स्तोता लोग (पूर्वथा) = सदा की भाँति (अद्याचित्) = आज भी (अनुष्टुवन्तिक्रमशः) = स्तवन करते हैं कि – 'हे प्रभो! आप ही ज्योति प्राप्त कराते हो, आप ही तृप्ति का अनुभव कराते हो और दीप्ति देते हो ।'
हे प्रभो! आप ही हमारे लिए (दिवे-दिवे) = दिन-प्रतिदिन (वृषपत्नीः) = धर्म की रक्षा करनेवाले (अपः) = कर्मों का (जय) = विजय करते हो । वस्तुतः आपकी दी हुई ज्योति व दीप्ति से ही हम उन कर्मों को कर पाते हैं, जो धर्मानुकूल होते हैं । इस ज्योति व दीप्ति के अभाव में ही हमसे पाप कर्म होते हैं। प्रभु के प्रकाश में हमारी चित्तवृत्ति धर्म-प्रवण होती है, उसी की कृपा से धर्म कर्मों में विजयसफलता प्राप्त होती है ।
भावार्थ -
हम धर्मानुकूल कर्म करें। उन कर्मों की सफलता में भी प्रभु की महिमा को देखते हुए निरहंकार बने रहें ।
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