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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 884
ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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य꣡स्त꣢ इन्द्र꣣ न꣡वी꣢यसीं꣣ गि꣡रं꣢ म꣣न्द्रा꣡मजी꣢꣯जनत् । चि꣣कित्वि꣡न्म꣢नसं꣣ धि꣡यं꣢ प्र꣣त्ना꣢मृ꣣त꣡स्य꣢ पि꣣प्यु꣡षी꣢म् ॥८८४॥

स्वर सहित पद पाठ

यः꣢ । ते꣡ । इन्द्र । न꣡वी꣢꣯यसीम् । गि꣡र꣢꣯म् । म꣣न्द्रा꣢म् । अ꣡जी꣢꣯जनत् । चि꣣कित्वि꣡न्म꣢नसम् । चि꣣कित्वि꣢त् । म꣣नसम् । धि꣡य꣢꣯म् । प्र꣣त्ना꣢म् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । पि꣣प्यु꣢षी꣢म् ॥८८४॥


स्वर रहित मन्त्र

यस्त इन्द्र नवीयसीं गिरं मन्द्रामजीजनत् । चिकित्विन्मनसं धियं प्रत्नामृतस्य पिप्युषीम् ॥८८४॥


स्वर रहित पद पाठ

यः । ते । इन्द्र । नवीयसीम् । गिरम् । मन्द्राम् । अजीजनत् । चिकित्विन्मनसम् । चिकित्वित् । मनसम् । धियम् । प्रत्नाम् । ऋतस्य । पिप्युषीम् ॥८८४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 884
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

हे प्रभो ! (यः) = जो (ते) = तेरी (नवीयसीम्) = अत्यन्त स्तुत्य व [नवतिर्गतिकर्मा] उत्तमोत्तम कर्मों की प्रेरणा देनेवाली (मन्द्राम्) = [मदी हर्षे] उच्चारण से हर्ष प्राप्त करानेवाली (गिरम्) = वेदवाणी को (अजीजनत्) = सदा प्रादुर्भूत करता है, अर्थात् उसका उच्चारण करता है, वह अपने अन्दर उस (धियम्) = बुद्धि व ज्ञान को (अजीजनत्) = पैदा करता है जो ज्ञान १. (चिकित्विन्मनसम्) = चेतनायुक्त मनवाला है—जो ज्ञान मन को सचेत करता है, जिसके कारण मन कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विवेक कर पाता है, २. (प्रत्नाम्) = जो ज्ञान सनातन है, सदा सृष्टि के प्रारम्भ में दिया जाता है— जिसे हम अपने मनोमालिन्य के कारण देख नहीं पाते, ३. (ऋतस्य पिप्युषीम्) = जो ज्ञान सत्य व यज्ञ का आप्यायन व वर्धन करनेवाला है, जिसका परिणाम यह होता है कि मैं सत्य की ओर झुकाववाला होता हूँ और यज्ञशील बनता हूँ [ऋत – सत्य; यज्ञ] ।

मन्त्रार्थ से स्पष्ट है कि वेदमन्त्रों के उच्चारण में भी एक आनन्द है, वेदाध्ययन से प्रेरणा प्राप्त होती है। धीरे-धीरे वह ज्ञान प्राप्त होता है जो हमारे मन को विवेकशील बना देता है तथा सत्य व यज्ञों का हममें पोषण करता है। इस ज्ञान की ओर जानेवाला ' तिरश्ची: ' है । मन्त्र में सुगुप्त [ तिर: ] ज्ञान की ओर [अञ्जु गतौ] गतिवाला होता है। इस ज्ञान के अनुसार क्रियाओं को करता हुआ यह ‘आङ्गिरस' अङ्ग-अङ्ग में रसवाला बनता है । 

भावार्थ -

 हम आनन्दपूर्वक रस लेते हुए, अर्थात् तन्मयता से मन्त्रोचारण करें, हमें अवश्य उनके अन्दर निहित ज्ञान की प्राप्ति होगी ।
 

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