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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 893
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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सु꣣वित꣡स्य꣢ वनाम꣣हे꣢ऽति꣣ से꣡तुं꣢ दुरा꣣꣬य्य꣢꣯म् । सा꣣ह्या꣢म꣣ द꣡स्यु꣢मव्र꣣तम् ॥८९३॥

स्वर सहित पद पाठ

सु꣣वित꣡स्य꣢ । व꣣नामहे । अ꣡ति꣢꣯ । से꣡तु꣢꣯म् । दु꣣राय्य꣢म् । दुः꣣ । आय्य꣢म् । सा꣣ह्या꣡म꣢ । द꣡स्यु꣢꣯म् । अ꣣व्रत꣢म् । अ꣣ । व्रत꣢म् ॥८९३॥


स्वर रहित मन्त्र

सुवितस्य वनामहेऽति सेतुं दुराय्यम् । साह्याम दस्युमव्रतम् ॥८९३॥


स्वर रहित पद पाठ

सुवितस्य । वनामहे । अति । सेतुम् । दुराय्यम् । दुः । आय्यम् । साह्याम । दस्युम् । अव्रतम् । अ । व्रतम् ॥८९३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 893
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

(सुवितस्य) = [सु-इतस्य] अत्युत्तमता से सर्वत्र प्राप्त उस प्रभु की (दुराव्यम्) = बड़ी कठिनता से प्राप्त करने योग्य- अत्यन्त दुर्लभ (सेतुम्) = शरण की - सर्वदुःख निवर्तक आश्रय की (अतिवनामहे) = अतिशेयन याचना करते हैं, (अव्रतम्) = व्रतशून्य जीवनवाले अथवा अन्यव्रत, अर्थात् शास्त्रविरुद्ध कर्म करनेवाले दस्युम्-नाशक ‘महापाप्मा' को साह्याम- हम पूर्णरूप से पराभूत कर सकें। प्रभु का स्मरण -सेतु उस बाँध के समान है जिसे कामरूप समुद्र के तूफान भी तोड़ नहीं सकते । इस सेतु से सुरक्षित 'अमहीयु' इन आसुरवृत्तियों के आक्रमण से आक्रान्त नहीं होता । प्रभुरूप सेतु उसकी रक्षा करता है। परिणामत: इसका जीवन ‘अव्रती' नहीं होता । व्रतमय जीवनवाला यह अधिकाधिक देवत्व को प्राप्त होता जाता है ।

भावार्थ -

हम प्रभुरूप सेतु से सुरक्षित होकर व्रती व दिव्य जीवनवाले बनें ।

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