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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 904
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
हि꣣न्व꣢न्ति꣣ सू꣢र꣣मु꣡स्र꣢यः꣣ स्व꣡सारो जा꣣म꣢य꣣स्प꣡ति꣢म् । म꣣हा꣡मिन्दुं꣢꣯ मही꣣यु꣡वः꣢ ॥९०४॥
स्वर सहित पद पाठहि꣣न्व꣡न्ति꣢ । सू꣡र꣢꣯म् । उ꣡स्र꣢꣯यः । स्व꣡सा꣢꣯रः । जा꣣म꣡यः꣢ । प꣡ति꣢꣯म् । म꣣हा꣢म् । इ꣡न्दु꣢꣯म् । म꣣हीयु꣡वः꣢ ॥९०४॥
स्वर रहित मन्त्र
हिन्वन्ति सूरमुस्रयः स्वसारो जामयस्पतिम् । महामिन्दुं महीयुवः ॥९०४॥
स्वर रहित पद पाठ
हिन्वन्ति । सूरम् । उस्रयः । स्वसारः । जामयः । पतिम् । महाम् । इन्दुम् । महीयुवः ॥९०४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 904
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - तीन महत्त्वपूर्ण बातें
पदार्थ -
इस मन्त्र में तीन बातें कही गयी हैं— १. (उस्रयः) = [उस्रि=going] गतिशील, क्रियाशील पुरुष (सूरम्) = [अन्तो वै सूरः - ताँ० १५.४.२] अन्त= [end] लक्ष्यस्थान को (हिन्वन्ति) = प्राप्त करते हैं। संसार में आज तक कोई भी अकर्मण्य व्यक्ति अपने लक्ष्यस्थान पर नहीं पहुँच पाया । ('यो यदर्थं कामयते, यदर्थं घटतेऽपि च । अवश्यं तदवाप्नोति न चेच्छ्रान्तो निवर्तते) ॥ श्रम करनेवाला, श्रान्त होकर न बैठनेवाला काम्यलक्ष्य को अवश्य प्राप्त करता है। २. जैसे (स्वसारः) = अपने, जिसका उन्होंने निर्माण करना है, घर की ओर जानेवाली (जामयः) = दुहिताएँ (पतिम्) = पति को प्राप्त करती हैं । इसी प्रकार स्वसार:-[स्वः=आत्मा] आत्मा की ओर चलनेवाली (जामय:) = [जयतेर्वा स्याद् गतिकर्मणः–नि० ३.६] गतिशील प्रजाएँ (पतिम्) = उस ब्रह्माण्ड-पति प्रभु को प्राप्त करती हैं । ३. (महीयुवः) = महत्ता चाहनेवाले व्यक्ति (महाम् इन्दुम्) = महनीय सोम को प्राप्त करते हैं। संसार में किसी भी प्रकार की महिमा या महत्ता सोम की रक्षा के बिना प्राप्त नहीं होती। शरीर में वीर्यकण ही सोम हैं, जो मनुष्य को अधिकाधिक महत्त्व प्राप्त कराते हैं । इन वीर्यकणों की रक्षा को ही 'ब्रह्मचर्य' कहते हैं ।
एवं, गतिशीलता के द्वारा लक्ष्य तक पहुँचनेवाले ये व्यक्ति ‘जमदग्नि'=गतिशील अग्रगतिवाले हैं [जमत्+अग्नि]। अपने जीवन का ठीक परिपाक करनेवाले ये भार्गव हैं [भ्रस्ज् पाके]। परिशुद्ध जीवन के कारण 'वारुणि' हैं ।
भावार्थ -
हम गतिशील बनकर लक्ष्यस्थान पर पहुँचे, आत्मतत्त्व की ओर चलनेवाले बनकर प्रभु को प्राप्त करें और सोम-रक्षा द्वारा इस संसार में महिमा प्राप्त करनेवाले बनें ।
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