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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 921
ऋषिः - दृढच्युत आगस्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
प꣡व꣢मान धि꣣या꣢ हि꣣तो꣡३ऽभि꣢꣫ योनिं꣣ क꣡नि꣢क्रदत् । ध꣡र्म꣢णा वा꣣यु꣢मारु꣢꣯हः ॥९२१॥
स्वर सहित पद पाठप꣡व꣢꣯मान । धि꣣या꣢ । हि꣣तः꣢ । अ꣣भि꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । क꣡नि꣢꣯क्रदत् । ध꣡र्म꣢꣯णा । वा꣣यु꣢म् । आ । अ꣣रुहः ॥९२१॥
स्वर रहित मन्त्र
पवमान धिया हितो३ऽभि योनिं कनिक्रदत् । धर्मणा वायुमारुहः ॥९२१॥
स्वर रहित पद पाठ
पवमान । धिया । हितः । अभि । योनिम् । कनिक्रदत् । धर्मणा । वायुम् । आ । अरुहः ॥९२१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 921
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - उन्नति के पथ पर
पदार्थ -
१. हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले सोम! तू (धिया) = प्रज्ञानों व कर्मों के द्वारा (हितः) = शरीर में स्थापित किया हुआ है। सोम को शरीर में सुरक्षित करने और वासनाओं से बचने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य ज्ञानोपार्जन में लगा रहे तथा कर्मशील बना रहे । २. यह सोम का रक्षक (योनिम्-अभि) = मूलस्थान परमेश्वर को लक्ष्य करके (कनिक्रदत्) = निरन्तर स्तुतिवचनों का उच्चारण करता है। सोम का रक्षक उस महान् सोम को क्यों न प्राप्त करेगा, ३. हे सोम ! (धर्मणा) = अपनी धारक शक्ति से तू (वायुम्) = इस क्रियाशील आत्मा को (आरुहः) = [आरोहय] उन्नति -पथ पर आरूढ़ कर । सोम का रक्षक अपना धारण तो करता ही है, यह सदा धारणात्मक कर्मों में लगा रहता है ।
भावार्थ -
सोम से बुद्धि व कर्मशक्ति बढ़ती है, मनुष्य प्रभु-प्रवण बनता है और धारक कर्मों में प्रवृत्त होकर उन्नति-पथ पर आगे बढ़ता है ।
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