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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 953
ऋषिः - पावकोऽग्निर्बार्हस्पत्यो वा, गृहपतियविष्ठौ सहसः पुत्रावन्यतरो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
4
इ꣡न्द्र꣢ ज꣣ठ꣢रं꣣ न꣢व्यं꣣ न꣢ पृ꣣ण꣢स्व꣣ म꣡धो꣢र्दि꣣वो꣢ न । अ꣣स्य꣢ सु꣣त꣢स्य꣣ स्वा꣢꣫३र्नो꣡प꣢ त्वा꣣ म꣡दाः꣢ सु꣣वा꣡चो꣢ अस्थुः ॥९५३॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯ । ज꣣ठ꣡र꣢म् । न꣡व्य꣢꣯म् । न । पृ꣣ण꣡स्व꣢ । म꣡धोः꣢꣯ । दि꣣वः꣢ । न । अ꣣स्य꣢ । सु꣣त꣡स्य꣢ । स्वः꣢ । न । उ꣡प꣢꣯ । त्वा꣣ । म꣡दाः꣢꣯ । सु꣣वा꣡चः꣢ । सु꣣ । वा꣡चः꣢꣯ । अ꣣स्थुः ॥९५३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र जठरं नव्यं न पृणस्व मधोर्दिवो न । अस्य सुतस्य स्वा३र्नोप त्वा मदाः सुवाचो अस्थुः ॥९५३॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्र । जठरम् । नव्यम् । न । पृणस्व । मधोः । दिवः । न । अस्य । सुतस्य । स्वः । न । उप । त्वा । मदाः । सुवाचः । सु । वाचः । अस्थुः ॥९५३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 953
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
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विषय - माधुर्य, प्रकाश, शक्ति, स्वर्ग का जीवन
पदार्थ -
(इन्द्र) = हे इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! तू (जठरम्) = [bosom, the interior part] अपने अन्तर को (नव्यं न) = अति नवीन प्रकार से अथवा स्तुत्य ढंग से (पृणस्व) = पूरित कर ले । १. (मधो:) = तू अपने अन्तर को माधुर्य से पूर्ण कर, तेरा हृदय माधुर्य से परिपूर्ण हो । २. (दिवः न) = [न इति चार्थे]= और तू अपने अन्तर को प्रकाश से परिपूर्ण कर । ३. (अस्य सुतस्य) = इस उत्पन्न सोम से तू अपने जठर को पूर्ण कर । यह सोम तेरे शरीर में ही व्याप्त होनेवाला हो । ४. इस प्रकार माधुर्य, प्रकाश व वीर्यशक्ति से परिपूर्ण तेरा जीवन (स्वः न) = स्वर्गलोक का-सा जीवन हो । ५. इस स्वर्ग में (त्वा) = तुझे (मदा:) = जीवन में आनन्दोल्लास भरनेवाली (सुवाचः) = उत्तम वेदवाणियाँ (उपास्थुः) = समीपता से प्राप्त हों ।
भावार्थ -
स्वर्गमय जीवन में माधुर्य, प्रकाश, शक्ति व उत्तम वाणियों का निवास है।
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