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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 962
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣣भि꣡ गावो꣢꣯ अधन्विषु꣣रा꣢पो꣣ न꣢ प्र꣣व꣡ता꣢ य꣣तीः꣢ । पु꣣नाना꣡ इन्द्र꣢꣯माशत ॥९६२॥

स्वर सहित पद पाठ

अभि꣢ । गा꣡वः꣢꣯ । अ꣣धन्विषुः । आ꣡पः꣢꣯ । न । प्र꣣व꣡ता꣢ । य꣣तीः꣢ । पु꣣ना꣢नाः । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । आ꣣शत ॥९६२॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि गावो अधन्विषुरापो न प्रवता यतीः । पुनाना इन्द्रमाशत ॥९६२॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । गावः । अधन्विषुः । आपः । न । प्रवता । यतीः । पुनानाः । इन्द्रम् । आशत ॥९६२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 962
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

१. (गावः) = वेदवाणियाँ इन सोम व्यक्तियों की (अभि अधन्विषुः) = ओर इस प्रकार स्वभावतः प्रवाहित होती हैं (न) = जैसे (आपः) = जल (प्रवता) = निम्न मार्ग से - निम्न मार्ग की ओर (यती:) = जाते हैं, अर्थात् इन ‘पवमान सोम' व्यक्तियों को वेदज्ञान स्वभावतः प्राप्त होता है। अपने को वे जितनाजितना परिमार्जित करते जाते हैं, उतना उतना ज्ञान का प्रकाश उनमें चमकता जाता है। २. उस ज्ञान के प्रकाश से (पुनाना:) = अपने को पवित्र करते हुए ये ३. (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (आशत) = प्राप्त होते हैं ।

गत मन्त्र के अनुसार जब हम 'सोम, पवमान, इन्द्र व अप्सु श्रीणाना: ' बनते हैं तब हमें १. वेदवाणियाँ प्राप्त होती हैं । २. इनकी प्राप्ति से हमारा जीवन पवित्र होता है और ३. हम प्रभु को प्राप्त करते हैं ।

भावार्थ -

हम इस योग्य हों कि वेदवाणियों का हममें स्वाभाविक प्रवाह हो । हम पवित्र हों और प्रभु को प्राप्त करें ।

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