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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 72
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - प्राजापत्या त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    अ॒ग्निरे॑नं क्र॒व्यात्पृ॑थि॒व्या नु॑दता॒मुदो॑षतु वा॒युर॒न्तरि॑क्षान्मह॒तो व॑रि॒म्णः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नि: । ए॒न॒म् । क्र॒व्य॒ऽअत् । पृ॒थि॒व्या: । नु॒द॒ता॒म् । उत् । ओ॒ष॒तु॒ । वा॒यु: । अ॒न्तरि॑क्षात्। म॒ह॒त: । व॒रि॒म्ण: ॥१.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निरेनं क्रव्यात्पृथिव्या नुदतामुदोषतु वायुरन्तरिक्षान्महतो वरिम्णः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नि: । एनम् । क्रव्यऽअत् । पृथिव्या: । नुदताम् । उत् । ओषतु । वायु: । अन्तरिक्षात्। महत: । वरिम्ण: ॥१.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 72

    पदार्थ -

    १. (अस्य) = इस ब्रह्मघाती (वेदविरोधी) के (लोमानि संछिन्धि) = लोमों को काट डाल । (अस्य त्वचं विवेष्टय) = इस की त्वचा [खाल] को उतार लो। (अस्य मांसानि शातय) = इसके मांस के लोथड़ों को काट डाल। (अस्य स्नावानि संवृह) = इसकी नसों को ऐंठ दे-कुचल दे। (अस्य अस्थीनि पीडय) = इसकी हड्डियों को मसल डाल । (अस्य मज्जानम् निर्जहि) = इसकी मज्जा को नष्ट कर डाल । (अस्य) = इसके (सर्वा अङ्गा पर्वाणि) = सब अङ्गों व जोड़ों को विश्रथय ढीला कर दे- बिल्कुल पृथक्-पृथक् कर डाल। २. (क्रव्यात् अग्निः) = कच्चे मांस को खा जानेवाला अग्नि (एनम्) = इस ब्रह्मज्य को (पृथिव्याः नुदताम्) = पृथिवी से धकेल दे और उत् ओषतु जला डाले। वायुः- वायुदेव (महतः वरिम्णः) = महान् विस्तारवाले (अन्तरिक्षात्) = अन्तरिक्ष से पृथक् कर दे और (सूर्य:) = सूर्य एनम् इसको (दिवः) = द्युलोक से प्रणुदताम् परे धकेल दे और (नि ओषतु) = नितरां व निश्चय से दग्ध कर दे। इस ब्रह्मघाती को अग्नि आदि देव अपने लोकों से पृथक् कर दें।

    भावार्थ -

    ब्रह्मघाती के अङ्ग-प्रत्यङ्ग का छेदन हो जाता है और इसका त्रिलोकी से निर्वासन कर दिया जाता है।

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