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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 45
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम् छन्दः - आसुरी गायत्री सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    उपो॑ ते॒ बध्वे॒ बद्धा॑नि॒ यदि॒ वासि॒ न्यर्बुदम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उपो॒ इति॑ । ते॒ । बध्वे॑ । बध्दा॑नि । यदि॑ । वा॒ । असि॑ । निऽअ॑र्बुदम् ॥७.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपो ते बध्वे बद्धानि यदि वासि न्यर्बुदम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपो इति । ते । बध्वे । बध्दानि । यदि । वा । असि । निऽअर्बुदम् ॥७.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 45

    पदार्थ -

    १. हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशाली प्रभो! (तावान् ते महिमा) = उतनी तेरी महिमा है, जितना विस्तृत यह ब्रह्माण्ड है। यह सब तेरी ही तो महिमा है। (उपो) = और (ते तन्वः शतम्) = ये सब आपके ही सैकड़ों शरीर है। २. (उपो) = और (ते बध्वे) = आपके नियमों के बन्धन में ये सब पिण्ड बद्धानि बंधे हुए हैं। हे प्रभो। (यदि वा) = अथवा आप (न्यर्बुदम् असि) = असंख्यों ही रूपों में हैं अथवा [अर्व गतौ] सर्वत्र प्राप्त हैं, निरन्तर व्यापक हैं।

    भावार्थ -

    यह ब्रह्माण्ड प्रभु की ही महिमा है। सब लोक-लोकान्तर प्रभु के ही सैकड़ों शरीर हैं। ये सब प्रभु के नियम-बन्धन में बद्ध हैं। प्रभु इन सबमें व्याप्त हो रहे हैं।

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