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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
    सूक्त - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    उद्व॑ ऊ॒र्मिःशम्या॑ ह॒न्त्वापो॒ योक्त्रा॑णि मुञ्चत। मादु॑ष्कृतौ॒व्येनसाव॒घ्न्यावशु॑न॒मार॑ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । व॒: । ऊ॒र्मि: । शम्या॑: । ह॒न्तु॒ । आप॑: । योक्त्रा॑णि । मु॒ञ्च॒त॒ । मा । अदु॑:ऽकृतौ । विऽए॑नसौ । अ॒घ्न्यौ । अशु॑नम् । आ । अ॒र॒ता॒म् ॥१.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्व ऊर्मिःशम्या हन्त्वापो योक्त्राणि मुञ्चत। मादुष्कृतौव्येनसावघ्न्यावशुनमारताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । व: । ऊर्मि: । शम्या: । हन्तु । आप: । योक्त्राणि । मुञ्चत । मा । अदु:ऽकृतौ । विऽएनसौ । अघ्न्यौ । अशुनम् । आ । अरताम् ॥१.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 16

    पदार्थ -

    १. हे मनुष्यो! (व:) = तुम्हारा (ऊर्मिः) = ऊपर ऊठने का उत्साह (उत्) = ऊपर और ऊपर (हन्तु) = गतिवाला हो, उन्नति के लिए उत्साह बढ़ता ही चले। (शम्या:) = शान्तगुणों से युक्त पुरुष (हन्तु) = सब बुराइयों का संहार करनेवाले हों। (आप:) = हे प्रजाओ। (योक्त्राणि) = [योजयते to censer] निन्दित कर्मों को (मुञ्चत) = छोड़ दो। २. हे स्त्रि-पुरुषो! आप (अदुष्कतौ) = दुष्ट कर्मों से रहित हुए-हुए विएनसौ विगत पापोंवाले-नष्ट पापोंवाले (अघ्न्यौ) = हिंसा से ऊपर उठे हुए होकर (अशुनम्) = दुःख को (मा आरताम्) = सर्वथा प्राप्त मत हो।

    भावार्थ -

    गृहस्थ में मनुष्य उत्साह-सम्पन्न बनें। शान्तभाव से कर्म करते हुए बुराइयों को नष्ट करें। निन्दित कर्मों को छोड़ दें। दुष्कृत से दूर होते हुए निष्पाप बनकर अहिंसा धर्म का पालन करते हुए सुखी हों।

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