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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 8
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदासुरी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    आहु॑त्यान्ना॒द्यान्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आऽहु॑त्या । अ॒न्न॒ऽअ॒द्या । अन्न॑म् । अ॒त्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ । ॥१४.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आहुत्यान्नाद्यान्नमत्ति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽहुत्या । अन्नऽअद्या । अन्नम् । अत्ति । य: । एवम् । वेद । ॥१४.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. (स:) = वह व्रात्य (यत्) = जब उदीचीम् [उद् अञ्च] उन्नति की दिशा की ओर (अनुव्यचलत्) = चला तो (सोमः) = सौम्य, शान्त व (राजा) = दीप्तजीवनवाला भूत्वा बनकर अनुव्यचलत क्रमशः आगे बढ़ा। सौम्यता व ज्ञानदीप्त जीवन में ही उन्नति सम्भव है। २. (यः एवं वेद) = जो इस तत्त्व को समझ लेता है कि उन्नति के लिए सौम्य, दीप्त जीवन की आवश्यकता है वह (सप्तर्षिभि:) = 'दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आँखें व मुख' रूप सप्तर्षियों से हते-किये जानेवाले ज्ञानयज्ञ में (आहुतिम्) = ज्ञेय विषयों की आहुति को (अन्नादी कृत्वा) = अन्न खानेवाली बनाकर आगे बढ़ता है। इस (अन्नाद्या आहुत्या) = अन्न को खानेवाली, विषयों की ज्ञानयज्ञ में दी जानेवाली आहुति से ही यह (अन्नं अत्ति) = अन्न को खाता है। उसी अन्न को खाता है जो ज्ञानेन्द्रियों को अपने कार्य में सक्षम करे।

    भावार्थ -

    हम सौम्य व ज्ञानदीप्त जीवनवाले बनते हुए जीवन में ऊर्ध्वगतिवाले हों। उन्हीं अन्नों का सेवन करें जो ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञानप्राप्ति के कार्य में सक्षम करें।

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